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विस्तार
हमारे घरों में अबोला पसरा है और परिवेश में आक्रोश। सामाजिक ताने-बाने से विश्वास रीत रहा है और पारिवारिक संबंधों में साथ-सहयोग का भाव नदारद है, साथ ही रोजगार हो या रोजमर्रा की आपाधापी, हर मोर्चे पर जीवन से जुड़ी परिस्थितियां भी कठिन ही हुई हैं। मन का बिखराव और जीवन का अर्थहीन विस्तार आज कटु सच बन गया है। आपाधापी की परिस्थितियों में कब किसका मन टूट रहा है, न कोई जानता है, न कोई जानना चाहता है।
ऐसे में आत्महत्या के बढ़ते मामलों की दुखद तस्वीर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो में ताजा आंकड़ों में स्पष्ट दिख रही है। साल 2021 में देश भर में खुदकुशी के 1,64,033 मामले दर्ज किए गए। इस रिपोर्ट के अनुसार, कामकाजी परेशानियों से लेकर रिश्तों में अलगाव की भावना, दुर्व्यवहार, हिंसा, पारिवारिक उलझनें, मानसिक समस्याएं, शराब की लत और वित्तीय नुकसान जैसे अहम कारण आत्महत्याओं के आंकड़े बढ़ा रहे हैं। आत्महत्या के 50 फीसदी मामले देश के सिर्फ पांच प्रांतों-महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में दर्ज हुए हैं। चिंतनीय यह भी है कि खुदकुशी के मामले साल-दर-साल बढ़ ही रहे हैं। देश में 2020 में आत्महत्या के कुल 1,53,052 मामले दर्ज हुए थे, जबकि 2021 में यह आंकड़ा करीब सात फीसदी बढ़ गया। इनमें गृहिणियां भी हैं और कामकाजी महिला-पुरुष भी। दिहाड़ी मजदूर भी हैं और किसान एवं युवा भी। हाल के वर्षों के ये आंकड़े समग्र समाज के समक्ष कई सवाल खड़े करने वाले हैं।
दरअसल, आभासी हो या असल दुनिया, औपचारिकता और दिखावे का मुखौटा पहने अधिकतर लोग भावनात्मक रूप से खुद को अकेला महसूस करते हैं। अपनों और अपने परिवेश के लोगों से संबल नहीं मिल पा रहा। नतीजा, अवसाद और मन-मस्तिष्क की टूटन। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, आज अवसाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बीमारी बन चुका है। बावजूद इसके मानसिक परेशानियों से टूटे मन की पीड़ा को समझने के बजाय या तो मजाक बना दिया जाता है या उपेक्षा का भाव रखा जाता है। यह बर्ताव भी जीवन से हारने का कारण बनता है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 15 से 29 साल के युवाओं में मौत का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या ही है। डब्ल्यूएचओ काफी समय पहले ही आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के तौर पर रेखांकित कर चुका है।
हमारे देश के परिप्रेक्ष्य में तो हालात भयावह ही कहे जाएंगे कि देश में 2021 में प्रति एक लाख की आबादी पर आत्महत्या के मामलों की राष्ट्रीय दर 12 प्रतिशत रही है। यह विडंबना ही है कि पारिवारिक मोर्चे पर सुदृढ़ माने जाने वाले भारतीय समाज में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों की एक वजह घर-परिवार से जुड़ी समस्याएं भी हैं। ध्यान रहे कि घरेलू जीवन से जुड़ी परेशानियां जिंदगी के हर पहलू को गहराई से प्रभावित करती हैं। जीवन के किसी भी मोर्चे पर आई समस्याओं की उलझन के दौर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परिवार ही बड़ा सहारा बन सकता है। मौजूदा दौर में कहीं भावनात्मक टूटन और व्यावहारिक उलझनों के जाल में फंसे लोगों को परिजनों का साथ भी नहीं मिल पा रहा, तो कहीं परिवार के छोटे-बड़े सदस्य मिलकर सामूहिक आत्महत्या जैसा पीड़ादायी कदम उठा रहे हैं।
असल में डिजिटल जीवनशैली ने भी इस मोर्चे पर काफी मुसीबत बढ़ाई है। आभासी माध्यमों के जरिये दुनिया से जुड़ने की जद्दोजहद और अनदेखे-अनजाने चेहरों संग संवाद का चलन अधिकतर लोगों को आत्मकेंद्रित बना रहा है। सामाजिक संवाद के खत्म होते दायरे ने अकेलेपन को वास्तविक जीवन का स्थायी हिस्सा बना दिया है। वर्चुअल दुनिया के अपडेट्स यह समझने ही नहीं देते कि कोई किस मनःस्थिति से गुजर रहा है? ऐसे में यह पूरे समाज की जिम्मेदारी है कि किसी के मन की टूटन सहयोग और संवेदनाओं भरे साथ के बिना जीवन से हारने की ओर न ले जाए। व्यवस्थागत सुधारों के साथ ही धैर्य, सकारात्मक सोच और परिवेश का सहयोगी बर्ताव ही जीवन बचाने में अहम भूमिका निभा सकता है।