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विस्तार
सा कौन-सा व्यक्तित्व है, जो भारत की पहचान को परिभाषित कर सकता है? वे जिन्होंने इस देश की मूल बहुलतावादी संस्कृति को ध्वस्त किया हो या फिर वे, जिन्होंने इसकी रक्षा में अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए? यह चर्चा 'पूर्वोत्तर के शिवाजी' नाम से प्रसिद्ध अहोम योद्धा लाचित बरफुकन की 400वीं जयंती पर दिल्ली में विगत 23-25 नवंबर को आयोजित कार्यक्रम के कारण प्रासंगिक है। आज से 350 वर्ष पहले वीर लाचित के पराक्रम ने क्रूर मुगल औरंगजेब को पूर्वोत्तर भारत में अपनी जड़ें जमाने से रोक दिया था।
देश के विमर्श में दशकों से यह प्रश्न उठता रहा है— क्या गजनवी, गोरी, खिलजी, बाबर, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब या टीपू सुल्तान इत्यादि इस्लामी आक्रांता भारत की पहचान हो सकते है? यदि इसका उत्तर 'हां' है, तो इस संदर्भ में पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, वीरसिंह बुंदेला, दुर्गादास राठौर, महाराजा छत्रसाल, गोरा-बादल, छत्रपति शिवाजी महाराज, पेशवाओं और राणा राज सिंह आदि शूरवीरों के साथ सिख गुरु परंपरा से प्रदत्त गुरु गोबिंद सिंह जी, बंदा सिंह बहादुर, चार साहिबजादे, महाराजा रणजीत सिंह आदि- जो जीवनभर मजहबी उन्माद प्रेरित अन्यायों के खिलाफ लड़े— उन्हें कैसे परिभाषित किया जाएगा?
पाकिस्तान का निर्माण— अनादि काल से एक बहुलतावादी, लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्षी भारत के एक तिहाई हिस्से को काटकर इस्लामी देश के रूप हुआ था। वहां आज गैर-मुस्लिमों— विशेषकर हिंदू-सिख-बौद्ध और उनकी संस्कृति का कोई स्थान नहीं है। पाकिस्तान की इस दमनकारी और गैर-इस्लामी मजहबों-मान्यताओं के साथ शत्रुवत व्यवहार करने वाले मानस के प्रेरणास्रोत कौन हैं? कासिम, गोरी, गजनवी, खिलजी, बाबर, जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, सर सैयद, जिन्ना, इकबाल, अली जौहर आदि को पाकिस्तान अपने वैचारिक अधिष्ठान का प्रणेता मानता है। खंडित भारत में, जिसके जीवन मूल्य पाकिस्तानी विचार के उलट है— क्या उपरोक्त लोग उसके नायकों में शामिल हो सकते है?
आखिर इन आक्रांताओं का सच क्या है? क्या यह सत्य नहीं कि इनके रोमहर्षक कुकर्मों का उल्लेख समकालीन इतिहासकारों या उनके दरबारियों द्वारा लिखे विवरण में है? सिंध के तत्कालीन हिंदू साम्राज्य को ध्वस्त करने वाले कासिम को पाकिस्तान की आधिकारिक वेबसाइटों पर 'पहला पाकिस्तानी नागरिक' कहा जाता है। गजनवी की मजहबी मानसिकता का सच तारीख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी पुस्तक में मिलता है। इसमें गजनवी ने कहा था, 'मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है।' क्या गजनवी ने इस मजहबी प्रतिज्ञा को सोमनाथ सहित दर्जनों मंदिरों को तोड़कर पूरा नहीं किया? क्रूर बाबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना राणा सांगा को 'काफिर' बताकर और उनकी विशाल सेना से 'इस्लाम की रक्षा' हेतु 'जिहाद' के बल पर की थी।
अकबर के निर्देश पर 16वीं शताब्दी में चित्तौड़ युद्ध में हजारों निरपराध असैन्य हिंदुओं की हत्या की गई। अपनी विजय की गहराई को मापने हेतु अकबर ने मृत हिंदुओं के देह से रक्तरंजित जनेऊ उतारकर तौला था। जहांगीर ने पांचवें सिख गुरु अर्जन देवजी को इस्लाम न अपनाने पर मौत के घाट उतार दिया। औरंगजेब की मजहबी भयावहता की गवाही उसका 49 वर्षीय शासनकाल देता है। असंख्य हिंदुओं के बलात् मतांतरण, काशी विश्वनाथ सहित दर्जनों प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करने के साथ इस्लाम अपनाने से इनकार करने पर नौंवे सिख गुरु तेग बहादुर का भी सिर धड़ से अलग करना— इसका प्रमाण है। मैसूर में टीपू सुल्तान का राज (1782-99) भी उसके पूर्ववर्ती इस्लामी शासकों जैसा विक्षिप्त था। इसका मूर्त रूप टीपू के पत्राचार और वह तलवार है, जिसके हत्थे पर लिखा है, 'अविश्वासियों (काफिर) के विनाश के लिए मेरी विजयी तलवार बिजली की तरह चमक रही है।'
कई इस्लामी आक्रांताओं के साथ मो.जिन्ना, मो.इकबाल, अली जौहर से लेकर सैयद अहमद खान आदि पर भी पाकिस्तान में दर्जनों संस्थान-भवन-सड़क-नगरों के नाम समर्पित है। 'दो राष्ट्र सिद्धांत' के सूत्रधार सर सैयद ने 16 मार्च, 1888 को 'हिंदू' और 'मुस्लिम'— दो राष्ट्र की कल्पना प्रस्तुत करते हुए मेरठ में कहा था, '...क्या यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक सिंहासन पर बैठें?... उसके लिए आवश्यक होगा कि एक, दूसरे को हराए। दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह असंभव और अकल्पनीय है।' वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग की प्रचंड पराजय से हताश इकबाल ने जिन्ना को पत्र लिखकर कहा था, '...स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के बिना देश में इस्लामी शरीयत का पालन और विकास संभव नहीं... यदि ऐसा नहीं हुआ तो गृहयुद्ध केवल अन्य विकल्प है।'
इस पृष्ठभूमि में यह स्वाभाविक प्रश्न है कि क्या खंडित भारत में, जिसकी वैचारिक अवधारणा किसी पूजा-पद्धति या मजहबी पहचान से संबंधित न होकर विशुद्ध रूप से उसके सनातन, लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और सेकुलर मूल्यों से प्रेरित है—उपरोक्त पंक्ति के विभाजनकारी और मतांध मानस जैसों को भारतीय पहचान से जोड़ा जा सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में खंडित भारत का भविष्य निहित है।