उत्तर प्रदेश जिला पंचायत चुनाव परिणामों ने उन सबको चौंकाया है, जो पिछले ग्राम पंचायत चुनाव के आधार पर मान चुके थे कि भाजपा के लिए अत्यंत कठिन राजनीतिक चुनौती की स्थिति पैदा हो चुकी है। कुल 75 में से 67 स्थानों पर भाजपा के अध्यक्षों का निर्वाचन निश्चित रूप से कई संकेत देने वाला है। चूंकि इस समय प्रदेश में समस्त राजनीतिक कवायद, बयानबाजी, विश्लेषण आदि अगले वर्ष के आरंभ में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से सामने आ रहे हैं, इसलिए कई बार जमीनी सच्चाई सामने नहीं आ पाती। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को हम विधानसभा चुनाव का ट्रेलर नहीं मान सकते, लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति के कई पहलुओं की झलक अवश्य मिलती है। पंचायत चुनावों के राजनीतिक पहलुओं को समझने के पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि बसपा इनसे अपने को दूर रखती है और कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं है नहीं। जाहिर है, मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था।
सबसे पहले बात करते हैं सपा की। सपा ने पूरे चुनाव पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। उसने पुलिस, प्रशासन व चुनाव अधिकारियों पर धांधली के आरोप लगाए हैं तथा इनके विरुद्ध आयोग में लिखित शिकायत भी की है। अखिलेश यादव अपने बयान में इसे लोकतंत्र का ही अपहरण बता रहे हैं। वास्तव में इस परिणाम के बाद अखिलेश यादव को सपा के नेताओं के साथ जिले से प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर आपस में बैठकर विश्लेषण करना चाहिए था। इससे उनको वस्तुस्थिति का आभास हो जाता। अभी विधानसभा चुनाव में सात-आठ महीने का समय है। इसका उपयोग कर वह सांगठनिक और वैचारिक रूप से अपनी पार्टी को चुनाव के लिए बेहतर तरीके से तैयार करने की कोशिश कर सकते थे। मीडिया में ऐसे दृश्य सामने आए, जब सपा के वरिष्ठ नेता जिला पंचायत चुनाव में अपने ही नेताओं के सामने गिड़गिड़ा रहे थे। क्यों? इसलिए कि वे स्वयं सपा के लिए काम करने को तैयार नहीं थे।
कई जगह तो निर्धारित सपा उम्मीदवारों ने नामांकन के समय ही मुंह फेर लिया। अखिलेश यादव को इनके विरुद्ध कार्रवाई तक करनी पड़ी। आखिर यह कैसे संभव हुआ कि 21 जिला पंचायतों में भाजपा के अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए? केवल इटावा में ही सपा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो सके। अगर सपा के उम्मीदवार सामने खड़े हो जाते, तो कम से कम निर्विरोध निर्वाचन नहीं होता। दूसरी ओर निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह परिणाम आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है। खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर प्रदेश में पार्टी के अंदर या बाहर जो नकारात्मक धारणा निर्मित हुई या कराई गई थी, उस पर चोट पड़ी है। योगी के नेतृत्व में प्रदेश में पार्टी इकाई को एकजुट किया जा चुका है, केंद्रीय नेतृत्व काफी पहले से चुनाव की दृष्टि से सक्रिय है, नेताओं के अलावा पूरे प्रदेश के जिम्मेवार कार्यकर्ताओं से संपर्क-संवाद का एक चरण पूरा हो गया है। विधायकों के प्रदर्शन तथा जनाधार का सर्वेक्षण आधारित अध्ययन भी आ चुका है। विपक्ष इस मामले में काफी पीछे है। विपक्ष के बीच जब एकजुटता नहीं होती, तब चुनावी भविष्य को लेकर अनिश्चय होता है और इसका लाभ सामान्य तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी को मिलता है।
उत्तर प्रदेश में अभी समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के बयानों को देखें। वे भाजपा के साथ स्वयं भी एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। बसपा कह रही है कि कांग्रेस, भाजपा और सपा के शासन में कभी निष्पक्ष चुनाव हो ही नहीं सकता। कांग्रेस कह रही है कि बसपा भाजपा की बी टीम है। वर्ष 2014 से वर्ष 2019 तक के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा शीर्ष बिंदु पर है और शेष दल इतने नीचे हैं कि सामान्य अवस्था में उनके वहां तक पहुंचने की कल्पना नहीं हो सकती। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों के बाद भी विपक्ष की ओर से किसी तरह की राजनीतिक प्रखरता और ओजस्विता नहीं प्रदर्शित हो रही। मिल-जुलकर मुकाबला करने का संकेत तक नहीं मिल रहा। इसमें यह मान लेना कठिन है कि जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव परिणाम विधानसभा तक विस्तारित नहीं होगा।
उत्तर प्रदेश जिला पंचायत चुनाव परिणामों ने उन सबको चौंकाया है, जो पिछले ग्राम पंचायत चुनाव के आधार पर मान चुके थे कि भाजपा के लिए अत्यंत कठिन राजनीतिक चुनौती की स्थिति पैदा हो चुकी है। कुल 75 में से 67 स्थानों पर भाजपा के अध्यक्षों का निर्वाचन निश्चित रूप से कई संकेत देने वाला है। चूंकि इस समय प्रदेश में समस्त राजनीतिक कवायद, बयानबाजी, विश्लेषण आदि अगले वर्ष के आरंभ में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से सामने आ रहे हैं, इसलिए कई बार जमीनी सच्चाई सामने नहीं आ पाती। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को हम विधानसभा चुनाव का ट्रेलर नहीं मान सकते, लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति के कई पहलुओं की झलक अवश्य मिलती है। पंचायत चुनावों के राजनीतिक पहलुओं को समझने के पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि बसपा इनसे अपने को दूर रखती है और कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं है नहीं। जाहिर है, मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था।
सबसे पहले बात करते हैं सपा की। सपा ने पूरे चुनाव पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। उसने पुलिस, प्रशासन व चुनाव अधिकारियों पर धांधली के आरोप लगाए हैं तथा इनके विरुद्ध आयोग में लिखित शिकायत भी की है। अखिलेश यादव अपने बयान में इसे लोकतंत्र का ही अपहरण बता रहे हैं। वास्तव में इस परिणाम के बाद अखिलेश यादव को सपा के नेताओं के साथ जिले से प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर आपस में बैठकर विश्लेषण करना चाहिए था। इससे उनको वस्तुस्थिति का आभास हो जाता। अभी विधानसभा चुनाव में सात-आठ महीने का समय है। इसका उपयोग कर वह सांगठनिक और वैचारिक रूप से अपनी पार्टी को चुनाव के लिए बेहतर तरीके से तैयार करने की कोशिश कर सकते थे। मीडिया में ऐसे दृश्य सामने आए, जब सपा के वरिष्ठ नेता जिला पंचायत चुनाव में अपने ही नेताओं के सामने गिड़गिड़ा रहे थे। क्यों? इसलिए कि वे स्वयं सपा के लिए काम करने को तैयार नहीं थे।
कई जगह तो निर्धारित सपा उम्मीदवारों ने नामांकन के समय ही मुंह फेर लिया। अखिलेश यादव को इनके विरुद्ध कार्रवाई तक करनी पड़ी। आखिर यह कैसे संभव हुआ कि 21 जिला पंचायतों में भाजपा के अध्यक्ष निर्विरोध चुने गए? केवल इटावा में ही सपा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो सके। अगर सपा के उम्मीदवार सामने खड़े हो जाते, तो कम से कम निर्विरोध निर्वाचन नहीं होता। दूसरी ओर निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह परिणाम आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है। खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर प्रदेश में पार्टी के अंदर या बाहर जो नकारात्मक धारणा निर्मित हुई या कराई गई थी, उस पर चोट पड़ी है। योगी के नेतृत्व में प्रदेश में पार्टी इकाई को एकजुट किया जा चुका है, केंद्रीय नेतृत्व काफी पहले से चुनाव की दृष्टि से सक्रिय है, नेताओं के अलावा पूरे प्रदेश के जिम्मेवार कार्यकर्ताओं से संपर्क-संवाद का एक चरण पूरा हो गया है। विधायकों के प्रदर्शन तथा जनाधार का सर्वेक्षण आधारित अध्ययन भी आ चुका है। विपक्ष इस मामले में काफी पीछे है। विपक्ष के बीच जब एकजुटता नहीं होती, तब चुनावी भविष्य को लेकर अनिश्चय होता है और इसका लाभ सामान्य तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी को मिलता है।
उत्तर प्रदेश में अभी समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के बयानों को देखें। वे भाजपा के साथ स्वयं भी एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। बसपा कह रही है कि कांग्रेस, भाजपा और सपा के शासन में कभी निष्पक्ष चुनाव हो ही नहीं सकता। कांग्रेस कह रही है कि बसपा भाजपा की बी टीम है। वर्ष 2014 से वर्ष 2019 तक के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा शीर्ष बिंदु पर है और शेष दल इतने नीचे हैं कि सामान्य अवस्था में उनके वहां तक पहुंचने की कल्पना नहीं हो सकती। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों के बाद भी विपक्ष की ओर से किसी तरह की राजनीतिक प्रखरता और ओजस्विता नहीं प्रदर्शित हो रही। मिल-जुलकर मुकाबला करने का संकेत तक नहीं मिल रहा। इसमें यह मान लेना कठिन है कि जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव परिणाम विधानसभा तक विस्तारित नहीं होगा।