राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पर हमेशा आरोप लगता रहा है कि अयोध्या के विवादित बाबरी विध्वंस के पीछे उसका हाथ रहा है। उसने भाजपा के जरिए राममंदिर आंदोलन को हवा दी, जिसका नतीजा छह दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के रूप में सामने आया। ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा विवाद को हवा देने का आरोप भी संघ पर ही लगता रहा है। अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि अयोध्या, काशी, मथुरा के बाद संघ के एजेंडे में आगे क्या है? उसकी लिस्ट में अभी कितने और धर्मस्थल हैं, जिनका विवाद भविष्य में इसी तरह सामने आ सकता है?
संघ के नेता यह मानते हैं कि इस तरह के सवालों के जवाब देना भी एक तरह से उस मुद्दे को स्थापित करने जैसा होता है। इससे ‘प्रोपेगंडा राजनीति’ को बल मिलता है। लिहाजा संघ रणनीति के तहत इस तरह के विवादित सवालों से खुद को दूर रखने का ही प्रयास करता है। आरएसएस खुद को सांस्कृतिक संगठन बताता है, जिसका कार्य देश में सांस्कृतिक जागरण का काम करना है। इसके लिए वह लगातार प्रयासरत रहता है।
संघ के एजेंडे में अभी कितने विवादित धर्मस्थल हैं और उसका अगला एजेंडा क्या है? अमर उजाला के इस सवाल पर आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि हमारे एजेंडे में कोई धर्मस्थल नहीं है। उनका कार्य केवल समाज और व्यक्ति का जागरण करना है जिसके लिए हम लगातार प्रयास करते रहते हैं।
आरएसएस के एक जानकार के मुताबिक, संघ मानता है कि इस तरह के आंदोलन कभी किसी संगठन के बल पर नहीं चलते। यदि समाज किसी विषय को उठाना जरूरी नहीं समझता तो उस तरह के आंदोलन कभी सफल नहीं होते। पूर्व में भारतीय समाज में कई संगठन इस तरह के मुद्दे उठा चुके हैं, लेकिन सफल नहीं हुए, क्योंकि आम भारतीय जनमानस उसके लिए तैयार नहीं था। जब आम जनमानस में किसी विषय पर एक राय पैदा हो जाती है तो उसे आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक या सामाजिक संगठनों के माध्यम से कोशिशें जरूर की जा सकती हैं। अपनी इसी सोच के कारण संघ किसी विषय को उठाने के लिए राजनीतिक सत्ता के माध्यम से उच्च स्तर पर आवाज उठाने की जगह समाज के बीच चर्चा शुरू करता है। माना जाता है कि अयोध्या के बारे में भी उसने यही रणनीति अपनाई थी और अब काशी-मथुरा के बारे में भी वह इसी रणनीति पर काम कर रहा है।
जानकारों का मानना है कि संघ का लक्ष्य विवादित मंदिरों की हिंदू समाज को वापसी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लक्ष्य वृहत्तर हिंदू राष्ट्र की सोच तक जाती है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयानों में कई बार इसकी झलक मिलती है। लेकिन इसका स्वरूप क्या होगा, इस पर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। चूंकि, वृहत्तर हिंदू राष्ट्र में कभी पाकिस्तान, बांग्लादेश और कई अन्य पड़ोसी देश भी शामिल थे। वर्तमान वैश्विक हालात में यह संभव नहीं हो सकता है कि भारत पड़ोसी देशों पर अपना अधिकार जमा सके। बहुत संभव है कि यूरोपीय यूनियन या अमेरिकी यूनियन की तर्ज पर भारत कभी इस तरह की परिकल्पना प्रस्तुत करे कि पूर्व में जो राष्ट्र कभी भारत का हिस्सा रहे थे, उन्हें किसी नाम से एक अंब्रेला संगठन के नीचे लाने की कोशिश की जाए। ज्यादा बेहतर वित्तीय और रणनीतिक साझेदारी का लाभ देखकर कुछ राष्ट्र इसका हिस्सा बनने में सहमति दे सकते हैं। वर्तमान में सार्क जैसे संगठन भी काफी सफल साबित हो रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषक शांतनु गुप्ता ने अमर उजाला को बताया कि इस मामले में सीताराम गुप्ता की पुस्तक ‘हिंदू टेंपल्सः ह्वाट हैपेंड टू देम’ एक प्रमाण के रूप में देखी जाती है। दो खंडों में प्रकाशित इस किताब में ऐसे हजारों धर्मस्थलों का प्रमाण सहित वर्णन किया गया है, जो पूर्व में कभी मंदिर थे और जिन्हें तोड़कर मस्जिद बना दिया गया। यह संख्या कम से कम दो हजार है। इस तरह भविष्य में इन मंदिरों को लेकर विवाद हो सकता है। शांतनु कहते हैं कि इस किताब में मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रमाण उन्हीं आक्रमणकारियों, नवाबों या बादशाहों के दरबारी लेखकों-कवियों की लेखनी से लिया गया है। इन लेखकों ने इन मंदिरों को अपने सामने तोड़ते हुए देखा था और उसका वर्णन उसी तरह किया। मुगलकालीन दस्तावेज होने और उन्हीं बादशाहों के दरबारी लेखक होने के कारण उनके प्रमाणित होने पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता।
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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पर हमेशा आरोप लगता रहा है कि अयोध्या के विवादित बाबरी विध्वंस के पीछे उसका हाथ रहा है। उसने भाजपा के जरिए राममंदिर आंदोलन को हवा दी, जिसका नतीजा छह दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के रूप में सामने आया। ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा विवाद को हवा देने का आरोप भी संघ पर ही लगता रहा है। अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि अयोध्या, काशी, मथुरा के बाद संघ के एजेंडे में आगे क्या है? उसकी लिस्ट में अभी कितने और धर्मस्थल हैं, जिनका विवाद भविष्य में इसी तरह सामने आ सकता है?