(यह लेख प्रतापसिंह ने लिखा है)
दिल्ली अब महज़ एक शहर नहीं रह गया है। बरतानिया राज के ख़ात्मे के बाद से नई सल्तनतों में तकसीम होता रहा, शिखर राजनीति के रजवाड़ों में धंसा रोज़ चेहरे बदलता, एक अफ़लातून महानगर है। उसमें विभाजन के बाद से गंवई-शहरी अनेक दिल्लियां और ज़ुबानें आन बसी हैं।
विभाजन के आस-पास की पैदाइश के समय से हम उसी बंद मुठ्ठी वाली 'देहली' के बाशिंदे हैं, जिसकी संस्कृति को सबसे ज़्यादा यहां के और फिर पूरे हिंदुस्तान के होकर रहे 'मीर' 'मोमिन' 'ग़ालिब' 'ज़ौक़' जैसे आलमगीर फ़क़ीराना तबीयत के शायरों ने सिरज़ा और प्रभावित किया है।
उन सुख़नवरों में क़ुदरतन मेरा साबका सबसे पहले 'मीर' की शायरी, मसनवी, कत'आ और फिर नज़्मों(बारम्बार) से पड़ा। पहली सूरत में वजह रही पतंगबाज़ी !! हवा की छुअन के बाद लहरते और पैंतरे बदलते कागज़ के इन परिन्दों (पतंगों) पर आशिक़ मिज़ाज पतंगबाज़ दोयम दर्जे के या 'ग़ालिब', 'मीर', 'दाग़', 'फ़िराक़' के शेर भी टांग दिया करते थे। पतंगों की लूट और संग्रह रुचि उन दिनों बुलंदी पर थी। एक रोज़ 'चांदतारा' बग़ल के घर की मुंडेर पर आन गिरा और मांजा-सद्दी हमारी मुंडेर को छू रही थी। कटी हुई की डोर खैंचते ही वह पतंग भी नसीब हुई। उस पर एक शेर खुदा था...
मर जाऊं कोई परवाह नहीं है
कितना मग़रूर है अल्लाह अल्लाह
अल्हड़पन की उम्र थी। इतना समझ आ रहा था - यह "किसी ने किसी को" दरयाफ़्त किया है। पर शेर किस का है? मालूम किया तो बाद में जान पड़ा यह देहली, आगरा और लखनऊ में (किसी सूरत) रहगुज़र करते रहे - ख़ुदा-ए-सुखन 'मीर' साहब का है। उसमें तरमीम यही थी कि 'मर जाओ' को ख़ुद के लिए 'मर जाऊं' और परवा को 'परवाह' लिखा गया था। ख़ैर...फिर तो इन 'गुड्डियों' पर हर साल पंद्रह अगस्त के आस-पास जाने कितने शेर अज्ञात-महबूबाओं पर न्यौछावर होते रहने की सनद मिलती चलीं गई।
कॉप, कन्नी, ठुड्डी, ऊपरी तुक्का और नीचे का पत्ता लगाने वाले हम उम्र 'उस्ताद छोकरे' आस-पास रहते थे। पर उनकी रुचि (मेरी तरह) शायरी के औसारे में बेवजह छलांग लगाने में कतई न थी। और मैं 'चंग' 'तिरंगे', 'चांदतारा', 'तुक्कल' से 'दमड़-चील' तथा 'अध्दे' तक पर ख़ुदे शेरों तक की फ़िराक़ में रहने लगा था। बसंत पंचमी, जन्माष्टमी और मकर-संक्रांति को भी कनकव्वों से ढपे (ढके) अपने सदर बाज़ार इलाके के आसमां को तेलीवाड़े से ताका करता था। जिसको जो चाहिए था मिल जाता था। पतंगों पर रचे शेरों की सूरत मेरी मुलाक़ात इन मफ़्तने (मोहित करने वाले) शेरों की मार्फ़त उस्ताद शायरों से हुई और होती चली गई...!!
पतंगबाज़ी पुराने वक़्तों में सलीमगढ़ में होती रही होगी। हमारे वक़्तों में पुर-पैच (बड़े दांव) (5 से 100-500 रुपये तक) लालक़िला, जुम्मा मस्जिद, रौशनारा बाग़ के खुले दामन में लड़ाए गए। मेरा शौक़ मुंडेरों तक था वह भी लूटने में ज़्यादा। बस फिर वह भी छूटने लगा - जब 'लूट' में मिले ये उम्दा, घटिया या रसिकपन की ठसक से उपजे 'शेर' भीतर ज़्यादा उड़ान भरने लगे। शाइरी शगल बना गया और शायर रंग अफ़्शां (नये-नये रंग अनुभूतियों को फुलाने और रचने वाला)! 'मीर' साहब के कलाम के ऊंचे टीले पर खड़े होने से पहले चंद ऐसे शेरों से भी वास्ता पड़ा जो उन जैसी ही अहलीयत याफ़्ता अर्श पर बैठे (बड़े) दूसरे शायरों का कलाम था। मुलाहज़ा ज़रूर फ़रमाएं ...
"रात भी, नींद भी, कहानी भई ...
हाय क्या चीज़ है जवानी भी।" - फ़िराक़
"दिल के बहलने की तदबीर तो है
तू, नहीं है, तेरी तस्वीर तो है।"
"मेरी क़िस्मत के दे के बल इनमें
किसने गेसू, तेरे संवारे हैं।" - कुं.महिंदर सिंह बेदी
"बला-ए-जां है 'ग़ालिब' उसकी हर बात
इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या।"
लेकिन ऐसी ही तबीयत से सराबोर टपका एक और शेर 'मीर' साहब का भी, एक पतंग पर चस्पा फिर पढ़ने को मिला
"क्या चाल यह निकाली हो कर जवान तुमने
अब जब चलो हो, दिल को ठोकर लगा करे है!!"
"मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी, एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा।"
पाक हसरतों के ऊंचे टीलों पर बैठे ये शाइर बाद कलाम में कुछ और नज़र आते गए। 'मीर' 'ग़ालिब', एक सदी के फ़ासले पर थे पर उनके वियोग, दुःख, प्रेम की पराकाष्ठा सबकी तपन एक ही है यादावरी (स्मृति) में डूबी थी :- "मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी, एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा।" ('मीर') या फिर यह शेर... "थी वो एक शख़्स के तसव्वुर से, आज वो शनाइ-ए-ख़याल कहां।" (ग़ालिब)]
दरअसल, ये दोनों अब मेरी नज़र में फ़क़त इश्रतकदा (रंगशाला वाले) शायर ने रहकर, सचमुच अपनी इज़ा (दुःख) में नहाये औ तराशे हुए सुख़नवर तामील हो चुके थे। जिन्हें दिल्ली के रगोरेशा (स्वभाव-प्रकृति) से रग़्बत (प्रेम) बेइन्ताह थी। और एक दूसरे की रेख़्ता में मुम्ताज़ी (विशिष्टता) पर नाज़ रहा। 'शहरे निगारां' (प्रेयसी के नगर) के बाद उन्हें दिल्ली के 'आलम' और 'उजाड़' पर हंसते, रोते, और कभी शादां (प्रसन्नचित) होते देखा। 'मीर' साहब ने तो लखनऊ के मुशायरे में लगभग आत्मसंलाप की मुद्रा में अपना और देहली का भरपूर परिचय दे डाला :- "क्या बूद-ओ बाश पूछो हो पूरब के साकिनो, हमको ग़रीब जानके, हंस-हंस पुकार के दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतख़ाब, हम रहने वाले हैं उसी उजड़s दयार के।।" (साकिन = स्थायी निवासी)
अपनी गर्वीली-ग़रीबी पर नाज़ करने वाले बड़े शायर 'मीर' ही हुए हैं। ग़ालिब उनकी क़द्र करते हैं मगर ख़ुद को शिखर पर रखने से बाज़ नहीं आते :-
"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था।" (रेख़्ता = उर्दू का पुराना नाम)
दिल्ली में शदाइद (कठिनाइयों) से गुज़रने के बाद 'ग़ालिब' हौसलापस्ती और खीझ के दायरे में एक ख़त में तो यहां तक दिल्ली को कोसते हैं :- "न सुख़नवरी रही, न सुख़नदानी, किस बिरते इत्ता पानी? तंगी और बदहाली में भी किंचित 'मीर' इतना ही कहते हैं :-
"क्या मीर तू रोता है
पामालि-ए-दिल ही को
इन लौंडों ने तो दिल्ली
सर पे उठा ली है।"
'मीर' की अगली शताब्दी (उन्नीसवीं) के शायर 'ग़ालिब' पर भी मीर की तर्ज़-बयानी का गहरा असर है। बेशक, वह भी मीर की तहरीर (लिखावट) को पीछे छोड़ने का दम भर सकते हैं।
'मीर' मेरे तईं दिल और दिल्ली की राज़दां के बड़े कारीगर हैं। और रहेंगे। 'ग़मे जानां'/'ग़मे-दौरां' दोनों उनमें हैं। दिल्ली तो उनमें एक तिलिस्म की तरह ही रची-बसी रहेगी। दिल्ली के ख़ून-ख़राबे, मार-काट, मोहताजी के बावजूद वह उस शहर की ख़ूबसूरती को कहीं ज़्यादा बयां कर गए हैं :-
"हर रोज़ एक नया तमाशा देखा
हर कूचे में सौ जवान-ए-रआना देखा
दिल्ली थी तिलिस्मात की हर जगह 'मीर'
इन आंखों से हमने आह क्या-क्या देखा।"
दिल्ली की मुआसिर (समकालीन) ज़िंदगी के अक्स कितने ही बदल जाएं पर 'मीर' की बसीरत (अंतर्दृष्टि) में हमेशा सबके लिए- मेरी वही दिल्ली उनकी यादावरी (स्मृति) का हिस्सा बनी रहेगी।
'मीर' के असर में लिखी ग़ज़ल
गुलमोहरों में होड़ लगी थी
तेरा चेहरा पढ़ते देखा।
उसकी सोच में पर्देदारी...
राज मुयन्नर होते देखा।
सच की सूरत मिटते देखी
लोहे को भी गलते देखा।
जोखिम की ज़द में आते ही
एक आईना चटका देखा।
तेवर बदल-बदला देखा
अपना घर भी बदला देखा।
एक जाम पर लड़ते देखा
साकी-साकी करते देखा।
दरिया हमसे ये पूछे था...
हूरों को भी मरते देखा?
टहनी-टहनी कांप रही थी
जब आंधी को चलते देखा।
'मीर' शहर में कल आए थे
ग़ुंचा-ग़ुंचा जलते देखा।
दाग़ रात भर कब सोये थे
दिन भर आंखें मलते देखा।
ये हमारी ज़ुबान है प्यारे
फ़िराक़ गोरखपुरी ने मीर के अशआर की जादूनिगारी में अनुभूतियों और लम्हों के चित्रण को अहम माना है। तो अली सरादर जाफ़री उनके जलवे इश्क़ की हज़ारों गलियों की तस्वीरों में देखे हैं- यह इश्क़ भौतिक, समाजी और खु़दा से वास्ता रखने वाला है। उनके मुताबिक- इश्क़ ख़ुदा है। मीर के यहां इश्क़ का एक समन्दर है जिसकी बहुत सी मौजे हैं। ज़ाफ़री साहब के 'दीवान-ए-मीर' में दो हज़ार ग़ज़लों (तगज़्ज़ुल) और 15 हज़ार अशआर का ज़िक्र है। यहां चुनिंदा अशआर पेश हैं जिनमें- उनके सादगीपन,फ़न और फ़राज़ (ऊंचाई) का पता चलता है :
अब तो जाते हैं बुतकदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया।
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
किया से लहू में नहा के चलें।
नाजु़की उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है।
सिरहाने मीर के अहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है।
इब्तिदा-ए-इश्क़ रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या।
'मीर' के दीन-ओ मज़हब को
अब पछताते क्या हो, उनने तो
क़श्का खेंचा, दैर में बैठा
कब का तर्क इस्लाम किया।
गुफ़्तुगू रेख़्ते में हमसे न कर
ये हमारी ज़ुबान है प्यारे ।
क्या करूं शरह ख़स्ता जानी की
मैंने मर-मर के ज़िन्दगानी की।
दिल मुझे उस गली में जाकर
और भी ख़ाक में मिला आया।
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा।
रू-ए-सुख़न सबका है मेरी ग़ज़ल की तरफ़
शेर है मेरा शुआर, देखिये कब तक रहे।
ख़ुश रहा, जब तलक रहा जीता
मीर, मालूम है कलन्दर था।
प्रताप सिंह, वरिष्ठ प्त्रकार
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"मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी, एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा।"
1 month ago
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