यह प्रसंग किताब 'लखनऊ की पाँच रातें' से लिया गया है जो राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित की है।
बकौल अली सरदार जाफ़री
जब मैं मुशायरे के बाद बाहर निकला तो एक इंतहाई ज़हीन आंखों और बीमार चेहरे का तालिबे-इल्म मुझे अपने कमरे में यह कहकर ले गया कि, "मैं इंक़लाबी हूं।" उसके कमरे में विक्टर ह्यूगो की बड़ी सी तस्वीर लगी हुई था और मेज़ पर चंद दोस्तों के साथ उसका अपनी तस्वीर थी, जिसकी पुश्त पर गोर्की का एक इक़्तबास लिखी हुआ था। ये सआदत हसन मंटो था। उसने मुझे भगत सिंह पर मज़ामीन पढ़ने के लिए दिए और विक्टर ह्यूगो और गोर्की से आशना किया।
आगे अपने और मंटो के संबंधों के बारे में बताते हुए वह कहते हैं कि
मैं जब अपनी तालीन ख़त्म करके लखनऊ चला गया और मंटो बंबई तो उसने मुझे कई बार बंबई बुलाया। जब मैं कम्युनिस्ट पार्टी के हफ़्तेवार अख़बार में काम करने के लिए सन् 1942 में बंबई पहुंचा तो मेरे और मंटो के दरम्यान अदबी इख़्तलाफ़ात की ख़लीज बहुत वसी हो चुकी थी लेकिन हमारी ज़ाती दोस्ती में फ़र्क़ नहीं आया।
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