फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू अदब के एक ऐसे मक़बूल शायर हैं जिनका एहतराम दोनों मुल्कों के लोग बराबर करते हैं। मजरुह सुल्तानपुरी का कहना था कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तरक्कीपसंदों के मीर तक़ी मीर थे। फ़ैज़ एक इन्कलाबी शायर थे और अक्सर उनकी गतिविधियों के कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ता था।
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किताब फ़ैज़ की सदी में उनकी नज़्में, उनका भाषण और पत्नी व बच्चों के नाम लिखे ख़त भी सम्मिलित हैं जिनमें उनकी जेल के अनुभवों की भी चर्चा की गई है। एक ऐसा ही ख़त उन्होंने अपनी पत्नी के नाम लिखा है जिसमें वह अपनी एक ट्रेन की यात्रा और जेल के अनुभव साझा कर रहे हैं। यह ख़त 7 जून 1951 को लिखा गया है।
तुम्हें पहले नहीं लिख सका जिसका अफ़सोस है लेकिन यहाँ हर काम बहुत धीरे-धीरे होता है और ख़त लिखने के लिए कागज़ आज ही हाथ आया है। मैं और दूसरे साथी चार तारीख़ की सुबह को स्पेशल ट्रेन से यहाँ पहुँचे। हमने जिस ठाठ से सफ़र किया देखने की चीज़ थी। सिर्फ़ बैंड-बाजे की कसर रह गया, वरना जिलौ में (सवारी के जुलूस में) और तो सब कुछ था। गाड़ी पर सवार होते ही यों महसूस हुआ कि सब परेशानियाँ दूर हो गयी हैं।
सफ़र का लुत्फ़, दुनिया को दोबारा देखने की लज्ज़त, पुरतकल्लुफ़ खाना, बहुत सी नेमतें यकबार ही हाथ में आ गयीं। उस दूर-दराज़ दिन के बाद जब मुझे अचानक घर से ले गये थे, पहली बार मज़े का खाना इस सफ़र की दोपहर में नसीब हुआ।
जेल के समय को याद करते हुए वह कहते हैं कि
अब तो यों है कि अगर कोई याद न दिलाए तो ख़्याल भी नहीं आता कि हम जेलख़ाने में हैं। यों लगता है कि हम अपनी मर्ज़ी से यहाँ हैं और अगर हमें यहाँ से बाहर जाने को जी चाहे तो कोई रोक भी नहीं सकता। जेल में हमारा घर अच्छा-खासा है। खाने पीने को काफ़ी मिलता है। अब तुम्हारी और बच्चों की तस्वीर सामने रखके मैं ख़ुशी से मुस्करा सकता हूँ।
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फ़ैज़ का ख़त...
3 months ago
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