कुंवर नारायण तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। उनके विशद् रचनाशीलता से हिंदी लोकवृत्त जीवन-द्रव्य पाता रहा है। वे अपनी रचनाओं में मानवीयता को बृहत्तर आयाम देने और चिंतन में आधुनिकता के हिमायती रहे हैं। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में जीवन के चिंतन-परक और दार्शनिक अर्थों के गुण-सूत्र बिखरे हुए हैं। मृत्यु-बोध से लेकर जीवन-बोध की उदात्त कामना से भरी ये कविताएं हमारी चेतना की सहयात्री हैं। ‘आत्मजयी’, ‘वाजश्रवा के बहाने’ और ‘कुमारजीव’ के अतिरिक्त ‘चक्रव्यूह’, ‘अपने सामने’, ‘परिवेश : हमतुम’, ‘इन दिनों’, ‘कोई दूसरा नहीं’, ‘हाशिए का गवाह’, ‘इतना सब असमाप्त’ इत्यादि कविता-संग्रहों में अभिव्यक्त दार्शनिक एवं भारतीय मन अभिव्यक्ति पाता रहा है। वे अपनी कविताओं में भारतीय चिंतन परम्परा के उन सवालों को संबोधित करते हैं जो जीवन को सहजता और सफलता की ओर उन्मुख करती हैं। और इस प्रक्रिया में वे कविता को दर्शन के बराबर स्थापित करते हैं अथवा उनकी कविताओं की चिंता में यह दार्शनिकता अपने नये अर्थ एवं संरचना को प्राप्त कर लेती हैं।
रोग, जरा और मृत्यु का भय मानव मन की प्रारंभिक चिंताएं रही हैं। यह सदियों पुरानी खोज रही है कि क्या इनसे मुक्ति संभव है? भारतीय चिंतन परम्परा के आस्तिक और नास्तिक दोनों ही दर्शनों की यह चिंता साझी रही है। एक ओर आस्तिक दर्शन सत्-चित्त्-आनंद में इसका हल खोजते हैं तो दूसरी तरफ नास्तिक दर्शन भौतिकता की तरफ जाते हैं। कुंवर नारायण अपनी रचनाओं में यहीं से उपजीव्य ग्रहण करते हैं और उनका रचनाकार मन दार्शनिक चिन्तनों को अनायास ही रचना के केंद्र में ला देता है। कुंवर नारायण का आरंभिक समय इन चिन्तनों में बीता है। रोग, जरा और मृत्यु को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा है। वे लिखते हैं-“चौथे दशक की शुरुआत में किसी दिन मृत्यु का प्रश्न मेरे लिए एक बड़ी सच्चाई में बदल गया जब मैंने अपने परिवार में यक्ष्मा से होने वाली कई मौतों को बिलकुल पास से देखा और सदमा पहुंचा देने वाले अनुभवों से गुजरा। कुछ समय के लिए एक भयानक आशंका से घिर गया कि शायद मैं भी इस बीमारी की चपेट में आ चुका हूं।” यही वजह रही है कि कुंवर नारायण आत्मपरक उपनिषद्कालीन तत्वों को परम्परा रूप में और वस्तुवादी दृष्टिकोण को आधुनिकता के बरक्स अपनाते हैं।
कुंवर नारायण के काव्य ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ में दार्शनिकता के लिए कठोपनिषद का प्रसंग लिया गया है जहां नचिकेता एक असहमति का, एक अलग बौद्धिक स्वायत्तता का जिसके लिए हमेशा औपनिषदिक दर्शन में गुंजाइश रही है, प्रतीक है। वहीं ‘कुमारजीव’ में कुमारजीव जीवन की उत्कट आकांक्षा का प्रतीक है, जिसका जीवन दर्शन बौद्ध दर्शन से अनुप्राणित है। कुंवर नारायण के काव्य में मृत्यु विषयक विवेचन की वजह से अस्तित्ववाद का भी प्रभाव दीखता है। मुमुक्षु नचिकेता अथवा संघर्षरत कुमारजीव के यहां अस्तित्व के प्रश्नों की गहरी जांच पड़ताल है और यहीं अस्तित्ववादी दर्शन के वे सूत्र खुलते हैं जो इनकी कविताओं को वैचारिक स्वरूप प्रदान करते हैं।
स्त्रोत, मुक्ति और त्राण यह सभी आदमी के अंदर ही हैं जिन्हें वह बाहरी दुनिया में तलाशता है। अतः सबसे प्रमुख स्वयं का अस्तित्व है जो कि सारे रहस्यों के सूत्रों को समाहित किए है, इस अस्तित्वबोध के बिना बृहत्तर प्रश्नों का समाधान संभव नहीं। कवि की सुचिंतित दृष्टि किसी तरह के धार्मिक निष्कर्षों का सहारा लेने के बजाय पूरी तरह दार्शनिक आशयों से जीवन मृत्यु सम्बन्धी गुत्थियों को सुलझाने का यत्न करती है। कुंवर नारायण भाषा में निहित दर्शन को जीवन-दर्शन के साथ खड़ा कर कविता को जीवनदायिनी बना देते हैं। वे लिखते हैं, “अपनी कविताओं में एक कवि केवल मौजूदा यथार्थ को ही नहीं एक विस्तृत और समग्र भाषा बोध को भी जीता है। उसका भाषा दर्शन भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उसका जीवन दर्शन।...कविता जीवन को भाषा में भी जीती, सोचती और व्यक्त करती है। इस भाषा संसार में अपनी भी जीवन-शक्ति है जिसे वह जीवन से ही पाती है और उसे ही लौटाती है।”
कुंवर नारायण की कविताएं सोच-विचार के अवकाश के लिए, नैतिक विवेक और बौद्धिक सघनता के लिए, हर दिन कठिनतम होती जाती दुनिया को खोजने-समझने-सहने की आत्मिक उर्जा के लिए और चेतना की आत्मीयता के लिए आवश्यक हैं। अंत में, उनकी कविता का एक अंश—“जब वह नहीं रहता/सब उसकी भयानक अनुपस्थिति को महसूस करते हैं/पर उसकी उपस्थिति को/कुछ ही लोग जान पाते हैं।”
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1 year ago
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