अब ख़ल्क अगर ख़ुदा बनाए
मिट्टी के रंग का बनाए
मुझमें भी चराग़ जल उठेंगे
तू ख़ुद को अगर हवा बनाए
तारीफ़ यही तो है हमारी
वो ज़ह्र कि जो दवा बनाए
मैं रात बना रहा हूं ख़ुद को
है कोई कि जो दिया बनाए
मुझको जो बरहना देखना हो
दुनिया मेरी क़बा बनाए
ख़ालिक है वो तो फिर कहो न
हमको भी इक ज़रा बनाए
नींद की ज़द पे मेरी आँख का आना न हुआ
यानी इक ख़्वाब भी शब-भर में पुराना न हुआ
हम तो ख़ुश थे चलो तन्हाई का पहलू निकाला
वो रवाना भी हुआ और रवाना न हुआ
घूम-फिर कर उसी इक शख़्स की ख़ातिर जीना
ज़िंदगी तुझसे कोई और बहाना न हुआ
एक ही शह्र में रहते हैं बिछड़ कर दोनों
और कुछ ऐसे कि फिर मिलना मिलान न हुआ
कब मनाऊंगा मैं उस हुस्न-ए-दिल-आवेज़ का सोग
ये ज़माना भी अगर मेरा ज़माना न हुआ
ख़ुदकुशी कर ली चेहरों ने पत्थर हो कर
शह्र भी शह्र रहा आइनाख़ानी न हुआ
अपनी आवाज़ की ख़ैरात नहीं की उसने
हमने चाहा भी मगर बात नहीं की उसने
आख़िरी बार मुलाक़ात तो करता मुझसे
आख़िरी बार मुलाक़ात नहीं की उसने
इश्क़ का सारा सफ़र धूप में गुज़रा इस बार
जाने क्या सोच के बरसात नहीं की उसने
दिन-भर आते तो रहे ज़ेहन में कितने ही सवाल
शब मगर नज़्र-ए-सवालात नहीं की उसने
उम्र-भर जलती रहीं आँखें मगर जाने क्यों
उनके कहने से कभी रात नहीं की उसने
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1 month ago
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