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बलिदान दिवस: अमीरों का लुटेरा...गरीबों का मसीहा, जानिए आदिवासियों के रॉबिनहुड ‘टंट्या भील’ की कहानी...
न्यूूज डेस्क, अमर उजाला, इंदौर
Published by: अरविंद कुमार
Updated Sun, 04 Dec 2022 01:56 PM IST
सार
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जननायक टंट्या मामा भील का बलिदान दिवस रविवार 4 दिसंबर को जोर-शोर से मनाया जा रहा है। इसके तहत प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान तीन घंटे से ज्यादा समय तक इंदौर में रहेंगे। वे टंट्या मामा की जन्मस्थली पातालपानी जाएंगे। साथ ही इंदौर आने के बाद भंवरकुआं चौराहा स्थित टंट्या भील की प्रतिमा का अनावरण करेंगे।
जननायक टंट्या मामा भील का बलिदान दिवस
- फोटो : सोशल मीडिया
मध्यप्रदेश का जननायक टंट्या भील आजादी के आंदोलन में उन महान नायकों में शामिल है, जिन्होंने आखिरी सांस तक अंग्रेजी सत्ता की नाक में दम कर रखा था। टंट्या भील को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है, क्योंकि वो अंग्रेजों के भारत की जनता से लूटे गए माल को अपनी जनता में ही बांट देते थे। टंट्या भील को टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। आज यानी 4 दिसंबर को उनका बलिदान दिवस मनाया जा रहा है। आइए जानते हैं उनकी शौर्य गाथा को।
बता दें कि इंदौर से लगभग 25 किलोमीटर दूर पातालपानी क्रांतिकारी टंट्या भील की कर्म स्थली है। यही वह जगह है जहां टंट्या भील अंग्रेजों की रेलगाड़ियों को तीर कामठी और गोफन के दम पर अपने साथियों के साथ रोक लिया करते थे। इन रेलगाड़ियों में भरा धन, जेवरात, अनाज, तेल और नमक लूट कर गरीबों में बांट दिया करते थे। टंट्या भील देवी के मंदिर में आराधना कर शक्ति प्राप्त करते थे और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर आस पास घने जंगलों में रहा करते थे। टंट्या भील 7 फीट 10 इंच के थे और काफी शक्तिशाली थे, उन्होंने अंग्रेजों को थका दिया था।
ट्रेन सलामी देती है...
यहां आज भी वह मंदिर है, जहां वह आया करते थे। मंदिर में टंट्या मामा की प्रतिमा और तस्वीर लगी हुए हैं। महू अकोला रेल लाइन पर मौजूद इस स्थान पर आज भी रेलगाड़ियों के ड्राइवर टंट्या मामा को सलामी देने के लिए रुकते हैं। कहा जाता है कि उनकी सलामी के लिए रेलगाड़ियां रोकी जाती हैं। उसका वैज्ञानिक कारण यह है कि घाट सेक्शन उतरने से पहले रेलगाड़ियां के ब्रेक चेक किए जाते हैं, जबकि मान्यता यह है कि टंट्या मामा को सलामी देने के लिए रेल गाड़ियां रूकती हैं। बता दें 4 दिसंबर 1840 को उन्हें जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई थी, आज उनका बलिदान दिवस है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आज यहां आएंगे और उनकी कर्मस्थली को नमन करते हुए उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे।
रॉबिनहुड बनने की कहानी...
टंट्या एक गांव से दूसरे गांव घूमते रहे। वह मालदारों से माल लूटकर वह गरीबों में बांटने लगे। लोगों के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगे। इसके अलावा गरीब कन्याओं की शादी कराना, निर्धन और असहाय लोगों की मदद करने से टंट्या मामा सबके प्रिय बन गए, जिससे उसकी पूजा होने लगी। बता दें कि रॉबिनहुड विदेश में कुशल तलवारबाज और तीरंदाज था, जो अमीरों से माल लूटकर गरीबों में बांटता था।
जानिए, कौन थे टंट्या मामा...
इतिहासकारों की मानें तो साल 1842 खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में भाऊसिंह के घर टंट्या का जन्म हुआ था। पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन और तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया। टंट्या ने धर्नुविद्या के साथ-साथ लाठी चलाने और गोफन कला में भी दक्षता हासिल कर ली। युवावस्था में अंग्रेजों के सहयोगी साहूकारों की प्रताड़ना से तंग आकर वह अपने साथियों के साथ जंगल में कूद गया। टंट्या मामा भील ने आखिरी सांस तक अंग्रेजी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी।
टंट्या मामा भील पर राजद्रोह का मुकदमा...
एमपी के राजगढ़ जिले के नरसिंहगढ़ निवासी योगेश मैथिल ने बताया कि नरसिंहगढ़ में टंट्या मामा भील पर न्यायालय में राजद्रोह का मुकदमा चला, यहां से उन्हें बाइज्जत बरी किया गया। मामा पर यह मुकदमा प्रताप निवास पैलेस वर्तमान तहसीलदार कार्यालय एसडीएम ऑफिस के भवन में चलाया गया था।
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प्रताप सिंह का शासनकाल 1873 से 1890 तक रहा...
मैथिल के अनुसार, इसके पहले नरसिंहगढ़ रियासत से संबंधित कोई भी सुनवाई तब सीहोर छावनी में होती थी। साल 1887 में विदेश यात्रा पर महारानी विक्टोरिया से मिलने वाले हिन्दुस्तान के पहले राजपूत महाराजा प्रताप सिंह थे। एडिनबरा विश्व विद्यालय से डीसीएल मानद पदवी प्रदान की। राजा के सम्मान मे एक निशान झंडा (ध्वज) भेंट किया। यहां स्टैट के राजा का निजी ध्वज बना, जो आज भी राजा के निवास पर फहराया जाता है। वहीं ऐसे शासक बने, जो अंतिम अपीलीय अधिकारी थे। उनके निर्णय के ऊपर विदेश में ब्रिटिश साम्राज्य की महारानी विक्टोरिया भी अपील पर सुनवाई नहीं करती थी। लेकिन सेट्रल न्यायालय इंदौर रेसीडेंसी होता था। अंतिम फैसला नरसिंहगढ़ रियासत की राजधानी की हाईकोर्ट में ही होता था।
टंट्या मामा का जन्म 1840 में खंडवा के पास पंधाना तहसील के गांव बरदा में होना ऐतिहासिक तथ्यों से प्रमाणित है। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां 1878 से 1889 तक रहीं। साल 1889 में उन पर जबलपुर में मुकदमा चला और 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई। वे मातृभूमि के लिए शहीद कर दिए गए।
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