आजादी के पहले संयु्क्त भारत और फिर आजाद भारत-पाकिस्तान में 1927 से लेकर 1986 के बीच 60 सालों में ईशनिंदा के केवल सात मामले दर्ज किए गए थे।उसके बाद के 30 सालों में पाकिस्तान में 1,000 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। ऐसा क्यों हुआ?हम पाकिस्तान की बात बाद में करेंगे, लेकिन पहले इससे कुछ अलग मुद्दे को देखें।
साहित्यकारों की पुरस्कार लौटाने की बाढ पर प्रधानमंत्री की कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए?हालांकि उन्होंने दादरी में एक आदमी को मार डालने की घटना पर मुंह खोला और इसे दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।लेकिन उन्होंने अभी तक साहित्यकारों की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज ही किया है और ये कहा जा सकता है कि उनकी यह चुप्पी बिना कारण नहीं है।
हर घटना पर मोदी को बोलने की जरूरत नहीं है और मैं इसे मानता हूँ।दूसरी बात ये है कि अधिकांश लोग ये महसूस करते हैं कि साहित्यकार पाखंड कर रहे हैं और उन्होंने अतीत में कांग्रेस के शासन काल के दौरान हिंसा होने पर ऐसा नहीं किया।तीसरी बात ये है कि उन्हें ये पुरस्कार सरकार की ओर से नहीं बल्कि एक साहित्यिक संस्था की ओर से मिले हैं।
ये सरकार से अलग एक स्वतंत्र संस्था है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही
है।तब ऐसी स्थिति में पुरस्कार लौटाना सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि अकादमी के
प्रति अनादर है लेकिन साहित्यकारों की यह मंशा नहीं थी।मेरे विचार से
पुरस्कार लौटाने की कार्रवाई नाटकीय है।
जानबूझकर ऐसा किया जा रहा है।एक
भारतीय लेखक के लिए विरोध दर्ज कराने के बहुत साधन नहीं हैं।साहित्य और
पेंटिंग दोनों ही संवाद के बहुत सशक्त माध्यम हैं, लेकिन इनका असर तत्काल
नहीं होता है।और विरोध में लिखना उन संस्कृतियों और समाजों को प्रभावित
करता है, जहां लोग पढ सकते हैं और अधिकांश जानकारियां लिखे शब्दों से हासिल
करते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी लेखकों ने अपने उपन्यासों के मार्फत
अपने देश को बताया कि ये क्या था और इसके बारे में वो क्या सोचते थे।भारत
वैसी जगह नहीं है और टेलीविजन और वीडियो ने तो ये सुनिश्चित कर दिया है कि
यह वैसी जगह कभी नहीं बनेगा। अगर ऐसा होता तो लेखक अपने कमरों से निकल पडते
और विरोध को धार देने की कार्रवाई करते।
इसकी बजाय वो सरकार को ये बताने के
लिए कतार लगा रहे हैं कि उसकी कार्रवाई या चुप्पी से वो बहुत नाराज हैं और
इसीलिए पुरस्कार लौटा रहे हैं।अभी तक 20 या इससे अधिक साहित्यकारों ने
पुरस्कार लौटाने की घोषणा की है। मुद्दे का यह पहलू यहां अहम है।सरकार समाज
में जो कर रही है उसके खिलाफ लेखक विरोध कर रहे हैं।
वो सोचते हैं कि
समाज में आए बदलाव को वो देख पा रहे हैं और लिखकर और चित्र बनाकर ये बताना
चाहते हैं कि वो चिंतित हैं। अगर हम मान भी लें कि इनमें से कुछ ऐसा इसलिए
कर रहे हैं क्योंकि वो भारतीय जनता पार्टी और इसकी विचारधारा को नापसंद
करते हैं, तब भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनमें से अधिकांश, और
हममें से भी अधिकांश, आजकल भारत में बन रहे माहौल को लेकर बहुत बेचैनी
महसूस कर रहे हैं और यही बात है जिससे इस बात पर भरोसा करना मुश्किल हो
जाता है कि साहित्यकारों की कार्रवाई केवल ड्रामा या कुछ राजनीतिक कारणों
से प्रेरित है।
इस तरह से देखने पर, लेखकों की खामोश मांग पर
प्रतिक्रिया देने के लिए मोदी पर बना दबाव एक गंभीर मामला हो जाता
है। लेखकों की मांग है कि मोदी हिंदुत्ववादी समर्थकों को शांत करने के लिए
आगे आएं।
मोदी के लिए अच्छी बात ये है कि टेलीविजन के तेजतर्रार एंकर अर्णव
गोस्वामी जैसे मीडिया के बहुत से लोग सोचते हैं कि पुरस्कार लौटाना एक
पब्लिसिटी स्टंट है और कहानी वैसी एकतरफा भी नहीं है जैसी यूरोप या दुनिया
के अन्य सभ्य हिस्सों में होती। मोदी की चुप्पी के कारण, बाहरी दुनिया में
भारत की छवि को कुछ हद तक धक्का लगा है।
कुछ दिनों पहले इस मुद्दे पर लंदन
में बीबीसी की ओर से मेरा साक्षात्कार लिया गया क्योंकि वो सोचते हैं कि
जबसे भारत में सत्ता में बीजेपी आई है, माहौल कुछ बदल सा गया है।मैं नहीं
सोचता था कि यह कोई बडी बात है और दुनिया के इस हिस्से में किसी बात पर
किसी इंसान को पीट-पीट कर मार डालना कोई नई बात नहीं है।
लेकिन धारणा ये है
कि चीजें बदतर होती जा रही हैं और यही वो धारणा है जिस पर मोदी को बोलने और
हस्तक्षेप करने पर विचार करने की जरूरत है। मोदी की स्टाइल के बारे में एक
चीज समझ लेनी चाहिए कि वो ऐसे मुद्दों पर टिप्पणी करने से बचते रहे हैं
जिन्हें हिंदुत्ववादी हिंसा के रूप में देखा जाता है।
गुजरात में एक दशक के अपने शासन काल में उन्होंने इस बारे में सवालों को नजरअंदाज किया और इस बारे में तो एक साक्षात्कार गवाह है।भारत में बाकी कहानियों की तरह ही, यह घटना भी बीत जाएगी और मोदी शायद सही ही सोच रहे होंगे कि वो इस बार भी कुछ बोले बिना निकल सकते हैं।अब शुरू में उठे सवाल की ओर लौटते हैं।
1986 में पाकिस्तान में ये बदलाव हुआ कि ईशनिंदा की सजा मृत्युदंड कर दी गई। इससे समाज में एक बदलाव आया और लोगों में सौहार्द कम हुआ और इसीलिए ईशनिंदा के मामलों में तेजी से वृद्धि हुई।भाजपा के शासन में भारत गोहत्या के कानून को लेकर आगे बढकर खेल रहा है।
हमें समाज में लगातार बढ रही हिंसा के पीछे के उन्माद को वैसे ही देखना चाहिए जैसे पाकिस्तान में होता है।साहित्यकारों के मुद्दों को अभी या बाद में मोदी संबोधित करते हैं या नहीं, लेकिन उन्हें हिंदुत्व के व्यापक सांस्कृतिक एजेंडे को देखना पडेगा।उन्हें ये अनुमान लगाना पडेगा कि ये उनके विकास के एजेंडे और भारत की छवि में मदद कर रहा है या नहीं।
(दादरी हत्याकांड और लेखकों के साहित्य सम्मान लौटाने पर आकार पटेल का विश्लेषण। ये लेखक के निजी विचार हैं। आकार पटेल एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक हैं।)
आजादी के पहले संयु्क्त भारत और फिर आजाद भारत-पाकिस्तान में 1927 से लेकर 1986 के बीच 60 सालों में ईशनिंदा के केवल सात मामले दर्ज किए गए थे।उसके बाद के 30 सालों में पाकिस्तान में 1,000 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। ऐसा क्यों हुआ?हम पाकिस्तान की बात बाद में करेंगे, लेकिन पहले इससे कुछ अलग मुद्दे को देखें।
साहित्यकारों की पुरस्कार लौटाने की बाढ पर प्रधानमंत्री की कैसी प्रतिक्रिया होनी चाहिए?हालांकि उन्होंने दादरी में एक आदमी को मार डालने की घटना पर मुंह खोला और इसे दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।लेकिन उन्होंने अभी तक साहित्यकारों की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज ही किया है और ये कहा जा सकता है कि उनकी यह चुप्पी बिना कारण नहीं है।
हर घटना पर मोदी को बोलने की जरूरत नहीं है और मैं इसे मानता हूँ।दूसरी बात ये है कि अधिकांश लोग ये महसूस करते हैं कि साहित्यकार पाखंड कर रहे हैं और उन्होंने अतीत में कांग्रेस के शासन काल के दौरान हिंसा होने पर ऐसा नहीं किया।तीसरी बात ये है कि उन्हें ये पुरस्कार सरकार की ओर से नहीं बल्कि एक साहित्यिक संस्था की ओर से मिले हैं।