भोजपुरी सिनेमा जितना सोशल मीडिया और दूसरी इंटरनेट वेबसाइट्स पर लोकप्रिय हो रहा है, उतने का कारोबार सिनेमाघरों में फिल्मों का नहीं हो रहा। दूर से भोजपुरी सिनेमा को चमकदार पारस पत्थर समझकर आने वाले अपने लोहे को सोना तो बना ही नहीं पाते हैं, गांठ का लोहा भी इस इंडस्ट्री में आकर गंवा दे रहे हैं। वजह क्या है? हमने जानने की कोशिश की भोजपुरी सिनेमा के दमदार लेखक रहे मनोज पांडे से। मनोज पांडे साफ कहते हैं कि भोजपुरी सिनेमा का सितारा इसके बड़े कलाकारों की वजह से ही डूब रहा है। ये सितारे अपने आसपास चापलूसों की फौज जुटाकर रखते हैं और निर्माताओं को कभी भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री का सच नहीं बताते हैं।
लेखन ही सिनेमा की नींव
भोजपुरी सिनेमा की ‘पंडित’, ‘राजा ठाकुर’, ‘पप्पू के प्यार हो गइल’, ‘बेटवा बाहुबली’, ‘घातक’, ‘गुलामी’, ‘प्रेमरोग’ जैसी कई हिट व चर्चित भोजपुरी फिल्में लिख चुके लेखक मनोज पांडे कहते हैं, ‘किसी भी इमारत की मजबूती उसकी नींव से होती है। फिल्म का लेखक भी फिल्म का नींव डालता है। लेकिन आज भोजपुरी में लेखकों को न तो पैसा मिलता है और न ही सम्मान। फिर भोजपुरी की नींव कैसे मजबूत होगी? यहां पर लेखकों को मुनीम समझा जाता है।’
‘भोजपुरी में लिखने का मन नहीं करता’
भोजपुरी सिनेमा में कहानियों में आ रही गिरावट पर सवाल किए जाने पर मनोज पांडे कहते हैं, ‘भोजपुरी हमारी भाषा होते हुए भी भोजपुरी फिल्में लिखने का अब मन नहीं करता। भोजपुरी फिल्में लिखने से अच्छा है आप हिंदी की कोई शार्ट फिल्म लिख लो। वहां आप को भोजपुरी से ज्यादा सम्मान और पैसा मिलता है।’ मनोज पांडे एक शार्ट फिल्म 'नीतिशास्त्र' लिख चुके हैं जिसमें तापसी पन्नू ने काम किया है। उनकी एक हिंदी वेब सीरीज ‘द रेड लैंड' पर भी काम चल रहा है। एक गुजराती फिल्म भी वह लिख चुके हैं।
‘भोजपुरी में सम्मान नहीं मिलता’
हिंदी सिनेमा के लेखकों में उत्तर भारत खासतौर से उत्तर प्रदेश व बिहार के लेखकों की भरमार होने के बारे में मनोज पांडे बताते हैं, ‘हिंदी फिल्मों के 90 प्रतिशत लेखक भोजपुरी की पृष्ठभूमि से आते हैं। हिंदी में अच्छी अच्छी फिल्मे लिख रहे हैं लेकिन वे भोजपुरी फिल्में फिल्में नही लिखना चाहते हैं जबकि भोजपुरी उनकी मातृ भाषा है। इस पर मंथन जरूरी है। जहां तक मैं समझता हूं कि जब उनको वहां सम्मान ही नहीं मिलेगा तो वे क्यों आएंगे भोजपुरी फिल्में लिखने। आज भोजपुरी में ज्यादातर वही लेखक सक्रिय हैं जो हीरो की चापलूसी करते हैं। उनकी अपनी कोई सोच नहीं। वे गलत को भी सही इसलिए मान लेते हैं क्योंकि उन्हें फिल्म से निकाल दिए जाने का खतरा रहता है। जब तक ऐसे लेखक रहेंगे भोजपुरी फिल्मों का उद्धार मुश्किल है।’
‘दो तीन हजार से ऊपर नहीं रही ओपनिंग’
भोजपुरी सिनेमा को लेकर आम धारणा यही रही है कि यहां कम कीमत में मोटा मुनाफा इसके निर्माता कमाते हैं। लेकिन, मनोज पांडे ‘अमर उजाला’ के साथ इस खास बातचीत में खुलासा करते हुए बताते हैं, ‘आज भोजपुरी में किसी भी फिल्म का एक दिन का कलेक्शन दो, तीन हजार रुपये से ज्यादा नहीं आता। यही भोजपुरी दर्शक हिंदी और साउथ की डब फिल्मे खूब देखते हैं। इसकी वजह यही है कि भोजपुरी फिल्मों में लेखकों को पूरी तरह से उपेक्षित किया जाता है। जब तक सिनेमा की नींव पर ध्यान नहीं दिया जायेगा तब तक भोजपुरी सिनेमा का यही हाल रहेगा । जब तक फिल्म के निर्माता इस बात को नहीं समझेंगे कि लेखकों को महत्व दिया जाए और अच्छे कंटेंट पर काम किया जाए तब तक भोजपुरी सिनेमा में सुधार नहीं होगा।’