रवाईं क्षेत्र का पौराणिक देवलांग मेला देवलांग (देवदार का पेड़) के आगे का भाग टूटने के बाद विघ्नबाधा के साथ संपन्न हुआ। इस दौरान दूसरे देवलांग का इंतजाम करने में पांच घंटे का समय लगा। ग्रामीण जब दोबारा देवलांग लेकर आए तो उसकी विधिवत पूजा-अर्चना करने के बाद उसे स्थापित किया गया। इसके बाद इसे जला दिया गया। देवलांग पूरा जलने तक मेला स्थल पर लोगों की भीड़ जुटी रही।
बृहस्पतिवार सुबह पांच बजे गैर गांव के राजा रघुनाथ मंदिर परिसर में आयोजित देवलांग मेले में देवलांग के आगे का भाग खड़ा करते हुए टूट गया था जिसके चलते भगदड़ मच गई थी। देवलांग टूटने की घटना को पौराणिक मान्यताओं में अशुभ माना जाने के चलते ग्रामीणों को दोबारा से देवदार के पेड़ का इंतजाम करना पड़ा। इसमें करीब पांच घंटे का समय लगा। दूसरा देवलांग लाने के बाद सुबह दस बजे मेला स्थल पर दोबारा से देवलांग की विधिवत पूजा-अर्चना की गई जिसके बाद उसे खड़ा किया गया और उसके पूरा जलने तक मेला स्थल पर लोगों की भारी भीड़ जुटी रही। बाद में राजा रघुनाथ के दर्शन व पूजन और मंदिर की परिक्रमा करने के बाद लोग घरों को लौट गए।
गढ़वाली सेना के जीतकर लौटने पर मनाया जाता है पर्व
मंदिर के पुजारी मोहन प्रसाद ने बताया कि मान्यताओं के अनुसार जिस तरह राम के वनवास से लौटने पर अयोध्या में उत्सव मनाया गया था, उसी तरह यहां टिहरी के राजा महिपत शाह के शासनकाल में वीरभड़ माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना के तिब्बतियों पर विजय प्राप्त कर लौटने की खुशी में दीपावली के पर्व के ठीक एक माह बाद देवलांग मेला मनाया जाता है। मेले में क्षेत्र के दो समूहों साठी और पानसाई जंगल से देवदार का पेड़ लाते हैं। इसके बाद उस पर छुलके (चीड़ की लकड़ी के छिलके) बांधकर पूजा की जाती है और दोनों समूह डंडों के सहारे खड़ा करते हैं। बाद में इस देवलांग पर आग लगाई जाती है। बताया कि देवलांग पर आग लगाने का उद्देश्य यह है कि यह आग जीवन में नकारात्मकता रूपी अंधेरे को खत्म करे और उजाले की ओर ले जाए। यह मेला सभी को शांति देने वाला भी है।