अस्सी साल की उम्र में भी तकरीबन हर रोज़ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की लाइब्रेरी में घंटों बैठना, पढ़ना और शाम के वक्त चाय के प्यालों के साथ तमाम परिचितों के साथ वक्त गुज़ारना, देश-दुनिया, मौजूदा हालात और एक बेहतर कल की उम्मीद पर बातें करना, भरोसा नहीं होता कि इतने ऊर्जावान, बेहद सरल और संवेदनशील रचनाकार गंगा प्रसाद विमल अब हमारे बीच नहीं रहे।
इसी 3 दिसंबर को करीब दो घंटे विमल जी से आईआईसी में तमाम मुद्दों पर बात हुई और ये तय हुआ कि जल्दी ही उनका एक वीडियो इंटरव्यू रिकॉर्ड करूंगा। तब कालका जी के उनके घर में कुछ काम चल रहा था और उन्होंने संकोच करते हुए ये कहा था कि कुछ दिन रुक जाएं तो कैसा रहे, काम करने वाले पूरा घर फैला गए हैं, उन्हें समेटने में और बैठने लायक बनाने में थोड़ा वक्त लगेगा।
बहरहाल, फिर 10 दिसंबर को तय हुआ कि अगले हफ्ते मिला जाए, फिर पता चला कि विमल जी श्रीलंका चले गए। इसका ज़िक्र उन्होंने तब भी किया था कि उनका मन तो नहीं है लेकिन बेटी कह रही है कि चलिए, तो हो सकता है कुछ दिनों के लिए श्रीलंका जाऊं। भला किसे पता था कि यह यात्रा उन्हें, उनकी बेटी और परिवार को इतनी महंगी पड़ेगी। किसे पता था कि वो कभी न लौटने के लिए जा रहे हैं।
अभी पिछले महीने 17 नवंबर को गाज़ियाबाद में अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान के सम्मान समारोह में विमल जी से मुलाकात हुई थी। मेरे लिए यह गौरव की बात थी कि मुझे भी विमल जी के साथ सम्मानित करने योग्य समझा गया। उस दौरान हम देर तक मंच पर साथ रहे, फिर वो मेरा कविता-संग्रह (बात निकलेगी तो...) अपने साथ ले गए, लगातार मिलते रहने की बात हुई और आखिरकार 3 दिसंबर को हमारी बेहद अंतरंग बातचीत हुई।
आईआईसी में उस दौरान उन्हें जो भी मिला उनसे मेरा परिचय करवाते रहे। मृदुला गर्ग से लेकर पैंथर पार्टी वाले भीम सिंह तक। फिर लाउंज में बैठकर हमारी बातचीत चाय के प्यालों के बीच विस्तार पाती गई।
मौजूदा दौर की पत्रकारिता हो, लेखकों-रचनाकारों की खेमेबाज़ी हो, दक्षिणपंथी उभार का चरम हो और नए कल की उम्मीद हो, विमल जी धीरे-धीरे मुस्कराते हुए और बेहद आराम आराम से बातें करते रहे। विनम्रता इस हद तक कि चाय भी प्याले में डालने के लिए मेरा हाथ थाम कर खुद आगे बढ़ जाते। बार-बार पूछते.. कुछ खा भी लीजिए, मंगवाऊं?
बातों-बातों में धर्मवीर भारती के ज़माने याद किए। कमलेश्वर से लेकर मंगलेश डबराल और अशोक वाजपेयी से लेकर साहित्य अकादमी के सम्मान वापसी प्रकरण तक की चर्चा हुई।
कहने लगे- प्रतिरोध तो ज़रूरी है। लेखक बेचारा क्या करे, खतरे इतने बढ़ गए, विचारों की आज़ादी खत्म हो गई, आपको चिन्हित किया जाने लगा, राष्ट्रवाद के नाम पर आपको कठघरे में खड़ा किया जाने लगा, विरोध करने वाले राष्ट्रद्रोही होने लगे, अब ऐसे में कैसे विरोध करें।
अवॉर्ड वापसी तो एक सांकेतिक विरोध था, लेकिन इसके आयाम बहुत बड़े हैं। आप देखिएगा, लोग चाहे जो कहें, वक्त तो बदलेगा ही। हमेशा तोड़ने वाली ताकतें आती हैं, लेकिन बनाने वाली और जोड़ने वाली ताकतें ज्यादा मज़बूत होती हैं।
विमल जी का दर्द बार-बार उभरता रहा। उनके भीतर का अकेलापन और अपने देश, समाज की चिंताएं दिखती रहीं। बेचैन होते तो कहते, एक बार चाय और चलेगी। मेज पर रखी बेल बजाते और अगली चाय लाने का आग्रह करते।
फिर उन्होंने अचानक पूछा, सुना है आपकी कोई वेबसाइट है सात रंग। फिर उन्होंने मेरे मोबाइल पर सात रंग के एक-एक सेक्शन और कैटेगरी को देखा। कहने लगे, ऐसी वेबसाइट और सामग्री की बहुत ज़रूरत है। आप एक बार अमेरिका या कनाडा जाइए। वहां ऐसी वेबसाइट और सामग्री को चाहने वाले बहुत हैं। यहां तो हर पैसे वाला बिकाऊ चीजें मांगता है और किसी प्रोजेक्ट को फाइनेंस करने में पहले ही अपना फायदा देखता है, वहां कई मेरे जानने वाले ऐसे एनआरआई हैं जो इस तरह की चीज़ पसंद करते हैं।
कला, साहित्य, संस्कृति की इतनी बड़ी दुनिया है, पर अपने यहां उपेक्षित है। शोर तो बहुत मचाया जाता है लेकिन होता कुछ नहीं है। लोग ये भूल जाते हैं कि कला-संस्कृति नहीं होगी तो वो भी नहीं होंगे। विमल जी हर जगह दलाली और खेमेबाज़ी, दबंगई और सियासी दांव पेंच से ऊबे हुए नज़र आते रहे। कहने लगे कि हमारे लिए तो लिखना पढ़ना ही सबकुछ है, न लिखूं-पढ़ूं तो क्या करूं।
फिर जेएनयू तक बात पहुंची। विमल जी जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी पढ़ाते रहे थे। जेएनयू को जिस तरह निशाना बनाया जा रहा है और उसे लेकर गलत धारणाएं फैलाई जा रही हैं, उससे विमल जी को बहुत तकलीफ थी।
कहने लगे- वहां इतने अच्छे अच्छे स्कॉलर रहे हैं, वहां के छात्रों की एक दृष्टि रहती आई है, वो मुद्दों को उठाना और संघर्ष करना जानते हैं, लेकिन उसे जो रंग दिया गया वो गलत है। इन लोगों जो जहां नेहरु का नाम दिखता है, वहीं कुछ समस्या होने लगती है और उससे जुड़े लोग देशद्रोही नजर आने लगते हैं। फिर हंसते हुए कहने लगे कि चलिए ठीक है, कर लेने दीजिए उन्हें भी। लोगों ने उन्हें चुना है तो मनमानी करेंगे ही। जो विचार वो फैलाना चाहते हैं, फैला रहे हैं। इसमें गलत क्या है और न ही कोई छुपी हुई बात है।
विमल जी के व्यक्तित्व की कई खासियतें बार-बार नज़र आती रहीं। वो सबसे बहुत अपनत्व से मिलते, उनकी शराफत की हर कोई कद्र करता, अपनी सुनाने से ज्यादा वो औरों की सुनना ज्यादा पसंद करते, बहुत तर्क नहीं करते थे लेकिन थोड़ा ही सही जब बोलते तो बेहद मार्के की बात बहुत कम शब्दों में हंसते हुए कह जाते।
उनका साहित्य और लेखन तो आपको इंटरनेट पर मिल जाएगा, उनकी रचनाएं तो कालजयी हैं ही, लेकिन उन जैसा व्यक्ति बिरला ही होता है। श्रीलंका का हादसा विमल जी को तो हमसे छीन ही ले गया, लेकिन उसका सबसे तकलीफदेह पहलू उनकी बेटी और नाती यानी उम्मीदों से भरी उन दो पीढ़ियों को भी अपने साथ ले गया। विमल जी को दिल से नमन और श्रद्धांजलि।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।
अस्सी साल की उम्र में भी तकरीबन हर रोज़ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की लाइब्रेरी में घंटों बैठना, पढ़ना और शाम के वक्त चाय के प्यालों के साथ तमाम परिचितों के साथ वक्त गुज़ारना, देश-दुनिया, मौजूदा हालात और एक बेहतर कल की उम्मीद पर बातें करना, भरोसा नहीं होता कि इतने ऊर्जावान, बेहद सरल और संवेदनशील रचनाकार गंगा प्रसाद विमल अब हमारे बीच नहीं रहे।
इसी 3 दिसंबर को करीब दो घंटे विमल जी से आईआईसी में तमाम मुद्दों पर बात हुई और ये तय हुआ कि जल्दी ही उनका एक वीडियो इंटरव्यू रिकॉर्ड करूंगा। तब कालका जी के उनके घर में कुछ काम चल रहा था और उन्होंने संकोच करते हुए ये कहा था कि कुछ दिन रुक जाएं तो कैसा रहे, काम करने वाले पूरा घर फैला गए हैं, उन्हें समेटने में और बैठने लायक बनाने में थोड़ा वक्त लगेगा।
बहरहाल, फिर 10 दिसंबर को तय हुआ कि अगले हफ्ते मिला जाए, फिर पता चला कि विमल जी श्रीलंका चले गए। इसका ज़िक्र उन्होंने तब भी किया था कि उनका मन तो नहीं है लेकिन बेटी कह रही है कि चलिए, तो हो सकता है कुछ दिनों के लिए श्रीलंका जाऊं। भला किसे पता था कि यह यात्रा उन्हें, उनकी बेटी और परिवार को इतनी महंगी पड़ेगी। किसे पता था कि वो कभी न लौटने के लिए जा रहे हैं।
अभी पिछले महीने 17 नवंबर को गाज़ियाबाद में अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान के सम्मान समारोह में विमल जी से मुलाकात हुई थी। मेरे लिए यह गौरव की बात थी कि मुझे भी विमल जी के साथ सम्मानित करने योग्य समझा गया। उस दौरान हम देर तक मंच पर साथ रहे, फिर वो मेरा कविता-संग्रह (बात निकलेगी तो...) अपने साथ ले गए, लगातार मिलते रहने की बात हुई और आखिरकार 3 दिसंबर को हमारी बेहद अंतरंग बातचीत हुई।
आईआईसी में उस दौरान उन्हें जो भी मिला उनसे मेरा परिचय करवाते रहे। मृदुला गर्ग से लेकर पैंथर पार्टी वाले भीम सिंह तक। फिर लाउंज में बैठकर हमारी बातचीत चाय के प्यालों के बीच विस्तार पाती गई।
मौजूदा दौर की पत्रकारिता हो, लेखकों-रचनाकारों की खेमेबाज़ी हो, दक्षिणपंथी उभार का चरम हो और नए कल की उम्मीद हो, विमल जी धीरे-धीरे मुस्कराते हुए और बेहद आराम आराम से बातें करते रहे। विनम्रता इस हद तक कि चाय भी प्याले में डालने के लिए मेरा हाथ थाम कर खुद आगे बढ़ जाते। बार-बार पूछते.. कुछ खा भी लीजिए, मंगवाऊं?