बराक हुसैन ओबामा की जीत में दुनिया भर के अन्याय पीड़ित समाज (चाहे वे रंगभेद, नस्लभेद, जातिभेद, धर्मभेद या अर्थभेद के शिकार हों) अपनी जीत देख रहे हैं। संयोग से अमेरिकी समाज और भारतीय समाज की विविधताओं में काफी समानताएं हैं। ओबामा विकासोन्मुख बदलाव चाहने वाले नेता हैं, क्योंकि बदलाव उनके लोगों की जरूरत है। वह अपनी जड़ों से जुड़े हैं।
विवाह के लिए भी वह अपनी जड़ों की ओर लौटे। उन्हें इससे जमीनी ताकत मिली, समाधान के लिए नस्ली समस्याएं मिलीं। श्वेत माता एवं अश्वेत पिता की संतान ओबामा के जीवन में अगर मिशेल के बजाय कोई श्वेत महिला आई होती, तो उनके अश्वेत अनुभवों में कमी आ जाती। तब वह उस ऐतिहासिक दासता से गुजरकर आई अश्वेत दुनिया का दर्द नहीं समझ पाते।
हमारे देश में जो लोग नेता बन रहे हैं, उनके सामने ऐसी सामाजिक समस्याएं चुनौती बनकर खड़ी नहीं होतीं। वे केवल व्यक्तिगत संपन्नता से तुष्ट रहते हैं। यही वजह है कि सामूहिक देशोत्थान नहीं हो पाता। जिस तरह अमेरिका में चुनाव के मौके पर नस्ल का मुद्दा प्रभावी होता है, उसी तरह अपने देश में जाति का मुद्दा काफी प्रभावी होता है। ओबामा की इस बार की जीत से वहां नस्लीय उत्पीड़न इतिहास की बात हो गई है, जबकि हमारे देश में दलित उत्पीड़न, अस्पृश्यता और बहिष्कारों के क्षेत्रों का दुखद विस्तार होता जा रहा है।
अमेरिकी नेताओं ने केवल दास प्रथा का अंत ही नहीं किया, बल्कि देश का भविष्य और नेतृत्व दासों व अश्वेतों की परंपरा के वाहक ओबामा के हाथों में सौंप दिया है। जबकि भारत में इन्हीं दिनों दलित बेटियों के साथ गैरदलित समुदाय के लोगों ने बलात्कार जैसे अमानवीय कर्म किए हैं। हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी नस्ल, रंग के आधार वाले सामुदायिक कारक प्रभावी रहे हैं, लेकिन योग्य नेताओं को वरीयता दी गई है। एशियाई अमेरिकी, अफ्रीकी अमेरिकी एवं हिस्पैनिस अश्वेत समुदायों की तरह भारत की जातियां भी अपने जाति के नेता का ही चुनाव करती हैं। आखिर क्या वजह है कि दूसरी जाति के लायक नेताओं के बजाय वे अपनी जाति के अयोग्य नेताओं को पसंद करते हैं?
ओबामा की आर्थिक नीतियां राष्ट्रपति चुनाव के दौरान चर्चा का विषय रहीं, लेकिन संतुलन एवं सरोकारों की दृष्टि से ओबामा की आर्थिक नीतियों से काफी कुछ सीखा जा सकता है। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कहा कि अमीरों को आयकर में छूट नहीं दी जाएगी। दरअसल वह आर्थिक रूप से टूटे हुए समुदायों के सबलीकरण का विकल्प खोज रहे हैं। चूंकि अश्वेत समुदाय रंगभेद और नस्लभेद के कारण दो सौ वर्षों से अधिक समय तक औद्योगिक एवं व्यावसायिक अवसरों से वंचित रहा है।
उनकी अपार क्षति की भरपाई इस रूप में हो सकती है कि अश्वेतों को आर्थिक बराबरी में आने तक आयकरों से मुक्त रखा जाए। आजादी मिलने के साथ ही हमारे देश की सरकार ने भी अछूतों को समान नागरिकता के सिद्धांत के अनुसार भेदभावों से निजात दिलाने का प्रयास किया। इसके लिए कानून भी बने, लेकिन समाज में जाति या वर्णभेद में अपेक्षित सुधार नहीं होने दिया गया।
अगर हमारे देश में दलितों को आर्थिक रूप से आजादी देनी है, दलित बच्चियों के साथ हुए अत्याचारों का स्थायी समाधान ढूंढना है, तो दलितों एवं वंचितों को भी आयकरों से मुक्त करना होगा। इसके लिए दलितों, अल्पसंख्यकों एवं तमाम वंचित जातियों को संगठित होना होगा। लेकिन दुखद है कि कांशीराम के अलावा ऐसा कोई दलित-पिछड़ा नेता नहीं हुआ, जो दलितों, अल्पसंख्यकों और अति पिछड़ी जातियों को एकजुट करने में समर्थ हो।
सरकारें संपत्ति संतुलन, भूमिहीनों में भूमि वितरण एवं एकसमान सर्वसुलभ शिक्षा देने में असमर्थ रही हैं। ऐसा करने के लिए सरकारों पर दबाव बनाने के लिए दलितों को भी प्रयास करने होंगे, क्योंकि अमेरिका में अश्वेतों ने 1919 में ही अपना नेशनल डेली निकाल लिया था और फिल्मों, साहित्य, नृत्य, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में स्थान बना लिया था। भारत के परिवर्तनकामियों को भी बराक ओबामा लंबे समय तक प्रभावित करेंगे और उनसे प्रेरणा लेकर हम भी अपने देश में सुधार कर सकेंगे।
बराक हुसैन ओबामा की जीत में दुनिया भर के अन्याय पीड़ित समाज (चाहे वे रंगभेद, नस्लभेद, जातिभेद, धर्मभेद या अर्थभेद के शिकार हों) अपनी जीत देख रहे हैं। संयोग से अमेरिकी समाज और भारतीय समाज की विविधताओं में काफी समानताएं हैं। ओबामा विकासोन्मुख बदलाव चाहने वाले नेता हैं, क्योंकि बदलाव उनके लोगों की जरूरत है। वह अपनी जड़ों से जुड़े हैं।
विवाह के लिए भी वह अपनी जड़ों की ओर लौटे। उन्हें इससे जमीनी ताकत मिली, समाधान के लिए नस्ली समस्याएं मिलीं। श्वेत माता एवं अश्वेत पिता की संतान ओबामा के जीवन में अगर मिशेल के बजाय कोई श्वेत महिला आई होती, तो उनके अश्वेत अनुभवों में कमी आ जाती। तब वह उस ऐतिहासिक दासता से गुजरकर आई अश्वेत दुनिया का दर्द नहीं समझ पाते।
हमारे देश में जो लोग नेता बन रहे हैं, उनके सामने ऐसी सामाजिक समस्याएं चुनौती बनकर खड़ी नहीं होतीं। वे केवल व्यक्तिगत संपन्नता से तुष्ट रहते हैं। यही वजह है कि सामूहिक देशोत्थान नहीं हो पाता। जिस तरह अमेरिका में चुनाव के मौके पर नस्ल का मुद्दा प्रभावी होता है, उसी तरह अपने देश में जाति का मुद्दा काफी प्रभावी होता है। ओबामा की इस बार की जीत से वहां नस्लीय उत्पीड़न इतिहास की बात हो गई है, जबकि हमारे देश में दलित उत्पीड़न, अस्पृश्यता और बहिष्कारों के क्षेत्रों का दुखद विस्तार होता जा रहा है।
अमेरिकी नेताओं ने केवल दास प्रथा का अंत ही नहीं किया, बल्कि देश का भविष्य और नेतृत्व दासों व अश्वेतों की परंपरा के वाहक ओबामा के हाथों में सौंप दिया है। जबकि भारत में इन्हीं दिनों दलित बेटियों के साथ गैरदलित समुदाय के लोगों ने बलात्कार जैसे अमानवीय कर्म किए हैं। हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी नस्ल, रंग के आधार वाले सामुदायिक कारक प्रभावी रहे हैं, लेकिन योग्य नेताओं को वरीयता दी गई है। एशियाई अमेरिकी, अफ्रीकी अमेरिकी एवं हिस्पैनिस अश्वेत समुदायों की तरह भारत की जातियां भी अपने जाति के नेता का ही चुनाव करती हैं। आखिर क्या वजह है कि दूसरी जाति के लायक नेताओं के बजाय वे अपनी जाति के अयोग्य नेताओं को पसंद करते हैं?
ओबामा की आर्थिक नीतियां राष्ट्रपति चुनाव के दौरान चर्चा का विषय रहीं, लेकिन संतुलन एवं सरोकारों की दृष्टि से ओबामा की आर्थिक नीतियों से काफी कुछ सीखा जा सकता है। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कहा कि अमीरों को आयकर में छूट नहीं दी जाएगी। दरअसल वह आर्थिक रूप से टूटे हुए समुदायों के सबलीकरण का विकल्प खोज रहे हैं। चूंकि अश्वेत समुदाय रंगभेद और नस्लभेद के कारण दो सौ वर्षों से अधिक समय तक औद्योगिक एवं व्यावसायिक अवसरों से वंचित रहा है।
उनकी अपार क्षति की भरपाई इस रूप में हो सकती है कि अश्वेतों को आर्थिक बराबरी में आने तक आयकरों से मुक्त रखा जाए। आजादी मिलने के साथ ही हमारे देश की सरकार ने भी अछूतों को समान नागरिकता के सिद्धांत के अनुसार भेदभावों से निजात दिलाने का प्रयास किया। इसके लिए कानून भी बने, लेकिन समाज में जाति या वर्णभेद में अपेक्षित सुधार नहीं होने दिया गया।
अगर हमारे देश में दलितों को आर्थिक रूप से आजादी देनी है, दलित बच्चियों के साथ हुए अत्याचारों का स्थायी समाधान ढूंढना है, तो दलितों एवं वंचितों को भी आयकरों से मुक्त करना होगा। इसके लिए दलितों, अल्पसंख्यकों एवं तमाम वंचित जातियों को संगठित होना होगा। लेकिन दुखद है कि कांशीराम के अलावा ऐसा कोई दलित-पिछड़ा नेता नहीं हुआ, जो दलितों, अल्पसंख्यकों और अति पिछड़ी जातियों को एकजुट करने में समर्थ हो।
सरकारें संपत्ति संतुलन, भूमिहीनों में भूमि वितरण एवं एकसमान सर्वसुलभ शिक्षा देने में असमर्थ रही हैं। ऐसा करने के लिए सरकारों पर दबाव बनाने के लिए दलितों को भी प्रयास करने होंगे, क्योंकि अमेरिका में अश्वेतों ने 1919 में ही अपना नेशनल डेली निकाल लिया था और फिल्मों, साहित्य, नृत्य, शिक्षा आदि के क्षेत्रों में स्थान बना लिया था। भारत के परिवर्तनकामियों को भी बराक ओबामा लंबे समय तक प्रभावित करेंगे और उनसे प्रेरणा लेकर हम भी अपने देश में सुधार कर सकेंगे।