संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 को 'अक्षय विकास के लिए बुनियादी विज्ञान का अंतरराष्ट्रीय वर्ष' (इंटरनेशनल ईयर ऑफ बेसिस साइंसेज फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट) घोषित किया है। अक्षय विकास का मूल मंत्र है पारिस्थितिक विकास। जब इसकी बात चलती है, तो पृथ्वी के भविष्य को संवारने की प्रेरणा देते हुए सुंदरलाल बहुगुणा का पारिस्थितिक योग कर्मी व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क पटल पर उभर आता है।
यदि जीवन को ऑक्सीजन की नैसर्गिक आपूर्ति करने वाले वनों के इस प्रहरी ने कोरोना की विषैली लहर में ऑक्सीजन की कमी से अपने जीवन की आहुति न दी होती, तो आज वह अपने जीवन के 95 वसंत पूर्ण कर लेते। सुंदरलाल बहुगुणा एक ऐसे दार्शनिक हुए, जिन्होंने वनों को ही एक नया आधार दिया है। उनके दर्शन शास्त्र ने पारिस्थितिक पिरामिड के शिखर पर बैठे मानव को उसके अस्तित्व के आधार के दर्शन कराए हैं।
पृथ्वी पर जीवन को उसके मूल से जोड़नेवाले बहुगुणा जी ने एक ऐसा दर्शन शास्त्र रचा है, जो स्वयं में कालजयी सिद्ध होगा। उस दर्शन शास्त्र के बिना मानव की जीवन-शून्यता अवश्यंभावी है। इसे प्रकृति के विकास क्रम का लक्ष्य कहें या लाखों अन्य जीव-जंतुओं से चहकती-महकती प्रकृति का अबलापन कि आज संपूर्ण प्रकृति पर मानव का आधिपत्य है। मानव अस्तित्व प्रकृति से है, यह एक सनातन सत्य है। लेकिन इस सत्य पर भारी है एक अर्धसत्य, कि संपूर्ण प्रकृति पर मानव का नियंत्रण है।
सुंदरलाल जी का नाम सदैव चिपको आंदोलन से जोड़ा जाता है। यह सत्य है कि अगर चिपको आंदोलन को उनका नेतृत्व न मिलता, तो मांग पूरी होने के साथ आंदोलन मर गया होता। लेकिन चिपको आंदोलन अमर है। बहुगुणा जी ने चिपको आंदोलन को एक दर्शन में रूपांतरित कर दिया। और यह दर्शन संसार में घर कर गया। इस दर्शन के मूल में वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सूर्यदेव पृथ्वी पर उतर आते हैं अपनी प्रकाश ऊर्जा को जीव ऊर्जा में रूपांतरित करने के लिए, पृथ्वी पर जीवन प्रवाह स्थापित करने के लिए। यही प्रकाश संश्लेषण है।
चिपको आंदोलन से विश्व भर के संवेदनशील लोग जुड़ गए, वैज्ञानिकों से लेकर प्रकृति प्रेमियों, योजनाकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं तक ने चिपको आंदोलन को समर्थन दिया और सरकार ने वन कटान पर प्रतिबंध भी लगा दया। इसके पीछे बहुगुणा जी की ओजस्विता और पर्यावरण दार्शनिकता ही थी, जो जनमानस के मन में अंकुरित होने लगी थी। बहुगुणा जी की सादगी का प्रमाण यह कि उन्होंने कभी चिपको आंदोलन के नेतृत्व का श्रेय नहीं लिया। उन्होंने विनम्रतापूर्वक खुद को चिपको आंदोलन का एक संदेशवाहक बताते हुए कहा कि इस आंदोलन का नेतृत्व तो पहाड़ की महिलाएं कर रही हैं।
बहुगुणा जी के दर्शन से जीवन के यश का झरना फूटता है उनके इस कथन से : 'जीवन की जय, मृत्यु का क्षय।' जीवन की जय में उनका केंद्रबिंदु मानव ही नहीं, बल्कि जैव मंडल के सभी जीव-जंतु हैं। मानव जाति का अस्तित्व अन्य सभी जीवों के अस्तित्व पर टिका है। बहुगुणा जी की सोच मानव-केंद्रित नहीं, प्रकृति-केंद्रित है। यही सोच 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट 'हमारा साझा भविष्य' में समाहित हुई है, जहां से टिकाऊ विकास जैसी अवधारणा आर्थिक विकास की धुरी बनी।
बहुगुणा जी ने हिमालय में बड़े बांध के विरोध में आंदोलन छेड़ा था और उन्हें पर्यावरण, पारिस्थितिकी, समाज और संस्कृति के लिए एक बड़ा खतरा बताया था। भागीरथी पर जब एशिया के सबसे ऊंचे बांध का निर्माण आरंभ हुआ, तो उन्होंने 84 दिन लंबे अपने उपवास और वैज्ञानिक तर्कों के जरिये टिहरी बांध के खतरों के प्रति आगाह किया। उन्होंने नदियों के अविरल बहने की महत्ता भी समझाई।
उनके विचारों की छाप दुनिया भर में पड़ी और टिहरी बांध निर्माण पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी लगा, पर योजनाकारों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और राजनेताओं के गठजोड़ से भागीरथी पर 260.5 मीटर ऊंचा बांध बनकर खड़ा हो गया और बांध के पीछे समुद्र-सी एक झील भी अस्तित्व में आ गई। और उसी के साथ शुरू हुई बहुआयामी संकटों की एक अटूट शृंखला।
बहुगुणा जी की दूरदृष्टि देखिए कि विकसित देशों ने बड़े बांधों को बहुआयामी संकटों का कारण मानते हुए तिरस्कृत कर दिया है।
अगर हमारी सरकारें बहुगुणा जी की दार्शनिकता को अपनातीं, तो पर्यावरण और पारिस्थितिकीय संकट पराकाष्ठा पर न पहुंच जाते। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान देने वाले बहुगुणा जी पर्यावरण विनाश और प्रदूषण से भी देश को स्वतंत्र कराने के लिए आंदोलन करते रहे। पारिस्थितिक दर्शन शास्त्र सुंदरलाल बहुगुणा की एक अनमोल सार्वभौमिक विरासत है, जिसमें सभी संकटों का हल छिपा है। उस संकट का भी, जिसके हल के लिए 2021 में ग्लासगो में विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष और वैज्ञानिक दो सप्ताह तक मंथन करते रहे।
विस्तार
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 को 'अक्षय विकास के लिए बुनियादी विज्ञान का अंतरराष्ट्रीय वर्ष' (इंटरनेशनल ईयर ऑफ बेसिस साइंसेज फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट) घोषित किया है। अक्षय विकास का मूल मंत्र है पारिस्थितिक विकास। जब इसकी बात चलती है, तो पृथ्वी के भविष्य को संवारने की प्रेरणा देते हुए सुंदरलाल बहुगुणा का पारिस्थितिक योग कर्मी व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क पटल पर उभर आता है।
यदि जीवन को ऑक्सीजन की नैसर्गिक आपूर्ति करने वाले वनों के इस प्रहरी ने कोरोना की विषैली लहर में ऑक्सीजन की कमी से अपने जीवन की आहुति न दी होती, तो आज वह अपने जीवन के 95 वसंत पूर्ण कर लेते। सुंदरलाल बहुगुणा एक ऐसे दार्शनिक हुए, जिन्होंने वनों को ही एक नया आधार दिया है। उनके दर्शन शास्त्र ने पारिस्थितिक पिरामिड के शिखर पर बैठे मानव को उसके अस्तित्व के आधार के दर्शन कराए हैं।
पृथ्वी पर जीवन को उसके मूल से जोड़नेवाले बहुगुणा जी ने एक ऐसा दर्शन शास्त्र रचा है, जो स्वयं में कालजयी सिद्ध होगा। उस दर्शन शास्त्र के बिना मानव की जीवन-शून्यता अवश्यंभावी है। इसे प्रकृति के विकास क्रम का लक्ष्य कहें या लाखों अन्य जीव-जंतुओं से चहकती-महकती प्रकृति का अबलापन कि आज संपूर्ण प्रकृति पर मानव का आधिपत्य है। मानव अस्तित्व प्रकृति से है, यह एक सनातन सत्य है। लेकिन इस सत्य पर भारी है एक अर्धसत्य, कि संपूर्ण प्रकृति पर मानव का नियंत्रण है।
सुंदरलाल जी का नाम सदैव चिपको आंदोलन से जोड़ा जाता है। यह सत्य है कि अगर चिपको आंदोलन को उनका नेतृत्व न मिलता, तो मांग पूरी होने के साथ आंदोलन मर गया होता। लेकिन चिपको आंदोलन अमर है। बहुगुणा जी ने चिपको आंदोलन को एक दर्शन में रूपांतरित कर दिया। और यह दर्शन संसार में घर कर गया। इस दर्शन के मूल में वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सूर्यदेव पृथ्वी पर उतर आते हैं अपनी प्रकाश ऊर्जा को जीव ऊर्जा में रूपांतरित करने के लिए, पृथ्वी पर जीवन प्रवाह स्थापित करने के लिए। यही प्रकाश संश्लेषण है।
चिपको आंदोलन से विश्व भर के संवेदनशील लोग जुड़ गए, वैज्ञानिकों से लेकर प्रकृति प्रेमियों, योजनाकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं तक ने चिपको आंदोलन को समर्थन दिया और सरकार ने वन कटान पर प्रतिबंध भी लगा दया। इसके पीछे बहुगुणा जी की ओजस्विता और पर्यावरण दार्शनिकता ही थी, जो जनमानस के मन में अंकुरित होने लगी थी। बहुगुणा जी की सादगी का प्रमाण यह कि उन्होंने कभी चिपको आंदोलन के नेतृत्व का श्रेय नहीं लिया। उन्होंने विनम्रतापूर्वक खुद को चिपको आंदोलन का एक संदेशवाहक बताते हुए कहा कि इस आंदोलन का नेतृत्व तो पहाड़ की महिलाएं कर रही हैं।
बहुगुणा जी के दर्शन से जीवन के यश का झरना फूटता है उनके इस कथन से : 'जीवन की जय, मृत्यु का क्षय।' जीवन की जय में उनका केंद्रबिंदु मानव ही नहीं, बल्कि जैव मंडल के सभी जीव-जंतु हैं। मानव जाति का अस्तित्व अन्य सभी जीवों के अस्तित्व पर टिका है। बहुगुणा जी की सोच मानव-केंद्रित नहीं, प्रकृति-केंद्रित है। यही सोच 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट 'हमारा साझा भविष्य' में समाहित हुई है, जहां से टिकाऊ विकास जैसी अवधारणा आर्थिक विकास की धुरी बनी।
बहुगुणा जी ने हिमालय में बड़े बांध के विरोध में आंदोलन छेड़ा था और उन्हें पर्यावरण, पारिस्थितिकी, समाज और संस्कृति के लिए एक बड़ा खतरा बताया था। भागीरथी पर जब एशिया के सबसे ऊंचे बांध का निर्माण आरंभ हुआ, तो उन्होंने 84 दिन लंबे अपने उपवास और वैज्ञानिक तर्कों के जरिये टिहरी बांध के खतरों के प्रति आगाह किया। उन्होंने नदियों के अविरल बहने की महत्ता भी समझाई।
उनके विचारों की छाप दुनिया भर में पड़ी और टिहरी बांध निर्माण पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी लगा, पर योजनाकारों, ठेकेदारों, इंजीनियरों और राजनेताओं के गठजोड़ से भागीरथी पर 260.5 मीटर ऊंचा बांध बनकर खड़ा हो गया और बांध के पीछे समुद्र-सी एक झील भी अस्तित्व में आ गई। और उसी के साथ शुरू हुई बहुआयामी संकटों की एक अटूट शृंखला।
बहुगुणा जी की दूरदृष्टि देखिए कि विकसित देशों ने बड़े बांधों को बहुआयामी संकटों का कारण मानते हुए तिरस्कृत कर दिया है।
अगर हमारी सरकारें बहुगुणा जी की दार्शनिकता को अपनातीं, तो पर्यावरण और पारिस्थितिकीय संकट पराकाष्ठा पर न पहुंच जाते। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान देने वाले बहुगुणा जी पर्यावरण विनाश और प्रदूषण से भी देश को स्वतंत्र कराने के लिए आंदोलन करते रहे। पारिस्थितिक दर्शन शास्त्र सुंदरलाल बहुगुणा की एक अनमोल सार्वभौमिक विरासत है, जिसमें सभी संकटों का हल छिपा है। उस संकट का भी, जिसके हल के लिए 2021 में ग्लासगो में विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष और वैज्ञानिक दो सप्ताह तक मंथन करते रहे।