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Assembly Election 2022: Congress started a new political debate by making SC CM in Punjab, what is its effect on UP-Uttarakhand assembly elections
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Assembly Election 2022: पंजाब में एससी सीएम बनाकर कांग्रेस ने शुरू की नई राजनीतिक बहस, यूपी-उत्तराखंड के चुनाव पर इसका असर क्या
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली।
Published by: प्रतिभा ज्योति
Updated Mon, 20 Sep 2021 06:56 PM IST
सार
पंजाब में एससी चेहरा चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने एक नई राजनीतिक बहस शुरू कर दी है। अभी तक हिंदुत्व का राजनीति या ओबीसी की राजनीति हो रही थी। लेकिन कांग्रेस की रणनीति से भाजपा पर दबाव बढ़ना निश्चित माना जा रहा है क्योंकि भाजपा मौजूदा समय में 17 राज्यों में अकेले या फिर गठबंधन के दम पर सरकार में है, लेकिन उसका एक भी सीएम अनुसूचित जाति से नहीं है।
राहुल गांधी और नवजोत सिंह सिद्धू के साथ पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी
- फोटो : Agency
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चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब में एससी समुदाय के पहले ऐसे नेता हैं जिन्हें राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का मौका मिला है। वहीं देश भर की बात करें तो 2015 में जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री पद को छोड़ने के छह साल बाद जाकर किसी सूबे में एक एससी को मुख्यमंत्री बनाया गया है। पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्दू के झगड़े के बाह ही सही लेकिन कांग्रेस ने पंजाब को पहली बार एक एससी को मुख्यमंत्री बनाकर नई राजनीतिक बहस शुरु कर दी है।
पार्टी ने एससी कार्ड के जरिए दूसरे राज्यों के समीकरण भी साध लिए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस के इस एक कदम से निश्चित तौर पर अगले साल पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी यह मुद्दा जोर-शोर से उछलने वाला है। कांग्रेस उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बड़े लक्ष्य की ओर भी देख रही है।
यूपी, उत्तराखंड के चुनाव पर क्या असर
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक राहुल गांधी ने पंजाब में जो प्रयोग किया है उसका असर यूपी और उत्तराखंड के चुनाव पर भी पड़ेगा। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार के मुताबिक पंजाब की राजनीति तो एससी के इर्द-गिर्द चलेगी ही यूपी उत्तराखंड में भी इसका असर दिखाई देगा। कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी कि पंजाब के अपने सियासी कदम का फायदा उसे यूपी और उत्तराखंड जैसे चुनावी राज्यों में भी मिले।
नाम नहीं लिखे जाने की शर्त पर उत्तर प्रदेश से जुड़े कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है- चन्नी का एससी समुदाय से होना उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तर पहुंचाने में मददगार बना। बेशक उनका कार्यकाल केवल कुछ ही महीनों का है लेकिन एससी सीएम का फॉर्मूला हमारी पार्टी का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, जो दूसरी पार्टियों को भी इस पर सोचने के लिए मजबूर करेगा। आगामी विधानसभा चुनाव में यह फॉर्मूला एक कारगर सियासी हथियार बन सकता है इसलिए यूपी या उत्तराखंड चुनाव में किसी एससी उम्मीदवार को सीएम चेहरा बनाने की भी किसी संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।
यूपी में कितना फायदा
विश्लेषकों के मुताबिक हालांकि इस बात की संभावना कम है कि कांग्रेस को यूपी में एससी फार्मूले का खास फायदा मिलने वाला है क्योंकि यहां पार्टी का मुकाबल भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे और मायावती के एससी वोटरों में पकड़ मजबूत से है। फिर भी यदि ऐसा होता है तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में एक मुश्किल खड़ी हो जाएगी। पंजाब में कांग्रेस का यह प्रयोग भाजपा पर भी इस बात के लिए दबाव डालेगा कि वह यूपी में नए सिरे से राजनीतिक और जातीय समीकरण को साधे। अभी तक पार्टी योगी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने की बात कह रही है।
जानकारों का मानना है कि यदि इन पांच महीनों में चन्नी पंजाब में सत्ता विरोधी लहर को दूर करने में कामयाब हो गए तो इसका फायदा कांग्रेस को पंजाब में मिलेगा ही, वे एससी चेहरे के तौर पर दूसरे राज्यों में भी पार्टी का ग्राफ ऊंचा कर सकते हैं। संकेत तो यह मिल रहे हैं कि चन्नी कांग्रेस के लिए यूपी-उत्तराखंड में चुनाव प्रचार करने के लिए स्टार कैंपेंनर के तौर पर भी शामिल किए जा सकते हैं।
चन्नी के सीएम बनते ही यूपी में ही सबसे ज्यादा हलचल
यह देखना काफी दिलचस्प है कि चरणजीत सिंह चन्नी तो सीएम पंजाब के बने हैं लेकिन उनकी ताजपोशी को लेकर सबसे ज्यादा हलचल यूपी में ही है। यूपी में करीब 21 फीसदी आबादी एससी समुदाय से है। यूपी में 86 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। मायावती के रूप में उत्तर प्रदेश को एक−दो बार नहीं बल्कि चार बार मुख्यमंत्री के तौर पर एक एससी नेतृत्व मिला।
इसलिए पंजाब में हुए सियासी घटनाक्रम के बाद एक तरफ जहां मायावती ने कांग्रेस पर ताबड़तोड़ हमला बोला वहीं सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी अनूसूचित जाति के लिए किए अपने कार्यों की उपलब्धियों को गिनाते हुए एक के बाद एक कई ट्वीट किए। उससे पहले मुख्यमंत्री रविवार को वाराणसी में पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल हुए थे।
मायावती अकाली दल के साथ मिलकर पंजाब में अपने पैर जमाने की कोशिश तो कर रही हैं लेकिन उनका असल दांव तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में लगेगा। जहां बीते करीब तीन दशक से दलितों के सबसे ज़्यादा वोट शेयर पर उनकी पार्टी को मिलता रहा है। जबकि 2014 के बाद से भाजपा भी दलितों को अपने साथ लाने के लिए कोशिश करने लगी है।
सीएसडीएस-लोकनीति के अध्ययन के मुताबिक 2009 से पहले तक भाजपा के के पास एससी वोट महज 10-12 फीसदी थे जो 2014 में बढ़कर दोगुने 24 फीसदी हो गए। 2019 में यह ग्राफ और ऊपर उठा और भाजपा को 34 फीसदी एससी वोट मिले। लिहाजा पंजाब में बने नए राजनीतिक समीकरण भाजपा को यूपी में अपने समीकरण दुरुस्त करने के लिए मजबूर कर सकती है।
उत्तराखंड में क्या
उत्तराखंड में लगभग 18 फीसदी वोट एससी समुदायों का है। राज्य के कम से कम 18 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां एससी समुदाय निर्णायक स्थिति में हैं। भाजपा, कांग्रेस समेता बसपा की भी नजर इन वोट बैंक पर है। हालांकि राज्य की राजनीति राजपूत बनाम ब्राह्मणों के बीच ही केंद्रित रहती है, लेकिन कांग्रेस सभी समुदायों को जगह देने के लिए इस बार किसी किसी भी तरह एससी कार्ड खेल सकती है। पंजाब के प्रभारी और उत्तराखंड के वरिष्ठ नेता हरीश रावत पंजाब के सियासी संकट को सुलझाने में पार्टी नेतृत्व के नुमाइंदे थे। माना जा रहा है कि पार्टी उत्तराखंड चुनाव में हरीश रावत की इस भूमिका का फायदा उठाने की कोशिश कर सकती है।
कुछ एससी नेता जो मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सके
चरणजीत सिंह चन्नी से पहले 1947 से लेकर अब तक देश में कई एससी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब हुए हैं। उनमें मुख्य तौर पर आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री दामोदरम संजिवैय्या रेड्डी ( कांग्रेस-1960), बिहार के मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री (कांग्रेस-1978), बिहार के ही मुख्यमंत्री रहे राम सुंदर दास (जनता दल-1979), राजस्थान के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया (कांग्रेस-1980) महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे (कांग्रेस- 2003) उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती (बसपा-2007) और बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी (जदयू-2014) का नाम शामिल है। उत्तर प्रदेश में बसपा की मजबूत पकड़ की वजह से मायावती ने 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन 2012 में उनकी सत्ता जाने के बाद से यूपी में कोई एससी सीएम नहीं बन सका।
विस्तार
चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब में एससी समुदाय के पहले ऐसे नेता हैं जिन्हें राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का मौका मिला है। वहीं देश भर की बात करें तो 2015 में जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री पद को छोड़ने के छह साल बाद जाकर किसी सूबे में एक एससी को मुख्यमंत्री बनाया गया है। पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्दू के झगड़े के बाह ही सही लेकिन कांग्रेस ने पंजाब को पहली बार एक एससी को मुख्यमंत्री बनाकर नई राजनीतिक बहस शुरु कर दी है।
पार्टी ने एससी कार्ड के जरिए दूसरे राज्यों के समीकरण भी साध लिए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस के इस एक कदम से निश्चित तौर पर अगले साल पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी यह मुद्दा जोर-शोर से उछलने वाला है। कांग्रेस उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बड़े लक्ष्य की ओर भी देख रही है।
यूपी, उत्तराखंड के चुनाव पर क्या असर
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक राहुल गांधी ने पंजाब में जो प्रयोग किया है उसका असर यूपी और उत्तराखंड के चुनाव पर भी पड़ेगा। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार के मुताबिक पंजाब की राजनीति तो एससी के इर्द-गिर्द चलेगी ही यूपी उत्तराखंड में भी इसका असर दिखाई देगा। कांग्रेस की पूरी कोशिश होगी कि पंजाब के अपने सियासी कदम का फायदा उसे यूपी और उत्तराखंड जैसे चुनावी राज्यों में भी मिले।
नाम नहीं लिखे जाने की शर्त पर उत्तर प्रदेश से जुड़े कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है- चन्नी का एससी समुदाय से होना उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तर पहुंचाने में मददगार बना। बेशक उनका कार्यकाल केवल कुछ ही महीनों का है लेकिन एससी सीएम का फॉर्मूला हमारी पार्टी का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, जो दूसरी पार्टियों को भी इस पर सोचने के लिए मजबूर करेगा। आगामी विधानसभा चुनाव में यह फॉर्मूला एक कारगर सियासी हथियार बन सकता है इसलिए यूपी या उत्तराखंड चुनाव में किसी एससी उम्मीदवार को सीएम चेहरा बनाने की भी किसी संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व बसपा सुप्रीमो मायावती।
- फोटो : amar ujala
जीतन राम मांझी
- फोटो : सोशल मीडिया
सीएसडीएस-लोकनीति के अध्ययन के मुताबिक 2009 से पहले तक भाजपा के के पास एससी वोट महज 10-12 फीसदी थे जो 2014 में बढ़कर दोगुने 24 फीसदी हो गए। 2019 में यह ग्राफ और ऊपर उठा और भाजपा को 34 फीसदी एससी वोट मिले। लिहाजा पंजाब में बने नए राजनीतिक समीकरण भाजपा को यूपी में अपने समीकरण दुरुस्त करने के लिए मजबूर कर सकती है।
उत्तराखंड में क्या
उत्तराखंड में लगभग 18 फीसदी वोट एससी समुदायों का है। राज्य के कम से कम 18 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां एससी समुदाय निर्णायक स्थिति में हैं। भाजपा, कांग्रेस समेता बसपा की भी नजर इन वोट बैंक पर है। हालांकि राज्य की राजनीति राजपूत बनाम ब्राह्मणों के बीच ही केंद्रित रहती है, लेकिन कांग्रेस सभी समुदायों को जगह देने के लिए इस बार किसी किसी भी तरह एससी कार्ड खेल सकती है। पंजाब के प्रभारी और उत्तराखंड के वरिष्ठ नेता हरीश रावत पंजाब के सियासी संकट को सुलझाने में पार्टी नेतृत्व के नुमाइंदे थे। माना जा रहा है कि पार्टी उत्तराखंड चुनाव में हरीश रावत की इस भूमिका का फायदा उठाने की कोशिश कर सकती है।
कुछ एससी नेता जो मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सके
चरणजीत सिंह चन्नी से पहले 1947 से लेकर अब तक देश में कई एससी नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब हुए हैं। उनमें मुख्य तौर पर आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री दामोदरम संजिवैय्या रेड्डी ( कांग्रेस-1960), बिहार के मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री (कांग्रेस-1978), बिहार के ही मुख्यमंत्री रहे राम सुंदर दास (जनता दल-1979), राजस्थान के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया (कांग्रेस-1980) महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे (कांग्रेस- 2003) उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती (बसपा-2007) और बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी (जदयू-2014) का नाम शामिल है। उत्तर प्रदेश में बसपा की मजबूत पकड़ की वजह से मायावती ने 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। लेकिन 2012 में उनकी सत्ता जाने के बाद से यूपी में कोई एससी सीएम नहीं बन सका।
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