हमारे नौजवानी के दिनों में सुनाई पड़ता था कि हमसे पहले वाली पूरी शहराती पीढ़ी की नाल खेत में गड़ी होती है। मतलब साहित्य के इलाके में किसान पृष्ठभूमि से आए लोगों की बहार हुआ करती थी और उनके लिए कस्बा या शहर बड़ी अचकचायी जगह की तरह दीखता था। बाद के दिनों में कस्बे के अपने कहानीकार सामने आए जिन्होंने उसकी खनक-चमक-कुंठा और पिछड़ेपन को बड़ी तल्लीनता से उभारा।
इधर, पुराने कहानीकारों के अचकचाएपन से अलग उनके वर्णन में समझ की गहरी जमीन पर उगे तंज की भरपूर छाप दिखती है। यह किताब उसी कस्बाई मध्यवर्ग का हालात-ए-हाजिरा बयान करती है, जिसके पास थोड़ा पैसा आया है, थोड़े नखरे आए हैं, पर बहुत कुछ पुराना भी उसके दिलो-दिमाग़ को काबू किए रहता है। अगर आपका संबंध ग्रामीण जड़ों वाले कस्बे से है तो आप इस किताब को पढ़ते हुए इसकी तकरीर की लज्जत ज्यादा महसूस कर सकेंगे।
इस किताब में कस्बे में आ बसी पुरानी पीढ़ी के कुछेक चित्र नजर आते हैं जो अपने ग्रामीण चौकन्नेपन के बावजूद कस्बे के महात्म्य से दब कर दयनीय और विचित्र दीखते हैं। दूसरी तरफ कस्बे की महानता में विभोर और ठीक उसी समय शहर की धाक से दबे, कुंठित और चरित्र भी जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। कुल मिलाकर ये चरित्र अभी ‘शहर बने नहीं और गाँव रहे नहीं, की जमीन से आए हैं। इनकी यही दुविधा इनसे विचित्र कारनामे करवाती है, नतीजे में भोलेपन और काइयाँपन का एक दारुण उपस्थित होता है।
अपने ग्रामीण औज़ारों से कस्बे के जीवन का असफल ऑपरेशन करने की कोशिश करने वाले चौकन्ने बूढ़े हों, कस्बाई लड़कों के एकतरफा प्रेम की आवारा-अलभ्य दुनिया हो, नए-नए अमीर हुए मध्यवर्ग की कुलीन न हो पाने की कुंठाएँ हों, यह सब इसी द्वंद्व की ज़मीन पर उभरता चला जाता है। गरीबी और अमीरी के बीच फँसे इसी कस्बाई मध्यवर्ग की विचित्रताओं पर अशोक पांडे अंगुली रखते हैं और व्यंग्य खुलता-खिलता चला जाता है।
व्यंग्य के लिए तो इस किताब को पढ़ा ही जाना चाहिए जोकि इसकी जान है, पर उसके नीचे प्रवाहित करुणा-स्नेह-इंसानियत की धारा के लिए भी इस किताब का रुख करना चाहिए। इस लिहाज से इस किताब के दो गरीब व निम्नमध्यवर्गीय चरित्रों का जिक्र करता चलूं। एक हैं ‘दलिद्दर कथा’ नाम के किस्से के नायक अशरफ और दूसरी ‘रज्जो’ नाम की कहानी की नायिका, घरेलू मदद का काम करने वाली रज्जो। कहानी बताकर आपका रस-भंग नहीं करना चाहता पर रेणु की कहानियों जैसा रस आपको इन क़िस्सों में ज़रूर आएगा, वायदा करता हूं।
आप सब को वह छोटी कविता याद होगी कि ‘टम टमाटर टम, टमाटर खाएं हम, अंग्रेज का बच्चा क्या जाने, अंग्रेजी जाने हम। जिस काम को हम हकीकत में नहीं कर पाते, उसे सपने में करते हैं, गप्प में करते हैं।
अंग्रेजों के उपनिवेश रहने के दाग हमारे मन मिज़ाज पर इतने गहरे थे/हैं कि हम सीधे-सीधे नहीं तो अन्य तमाम तरह से उनसे प्रतिरोध साधते रहे हैं, चाहे वे पोलिटिकली करेक्ट हों या न हों। संग्रह में कम से कम दो ऐसी गप्प-कथाएँ आपको मिलेंगी जहां पहाड़ के रहवासियों ने गप्प की मार्फत अंग्रेज बहादुर की श्रेष्ठता पर सवाल उठाया। रोचक विन्यास की ये कथाएँ हमारे सामूहिक मन के कुंठा-बोध को बेपरदा कर देती हैं।
यह कुंठा-बोध नए-नए अवतार धारण कर हमारे समाज में लीलाएं करता रहता है, पर इसका विकास बहुत हुआ है। अब यह गप्प के सहारे नहीं मिटाया जाता। अब इसके लिए अपने आस-पड़ोस वालों से नफरत करने, अपमानित करने व नीचा दिखाने के औजार इस्तेमाल किए जाते हैं। इस किताब में हमारे दौर में हो रही इस लीला की विभिन्न छवियाँ आपको देखने को मिलेंगी।
यहां खूसट कृतघ्न बूढ़ा है, मृत्यु-उत्सव में लिथड़े हुए लोग हैं, भलाई को, स्मृति को एक्जॉटिक तरीकों की तरह इस्तेमाल करने वाले अघाए लोग हैं और फेसबुक के प्रौढ़ कुंठित हैं। यथार्थ के नश्तर से इस कुंठा को चीरती यह किताब इस लिए दिलचस्प के साथ जरूरी भी बन पड़ी है।
सचाई और झुठाई के अद्भुत घोल से तैयार यह किताब विधाओं और पात्रों का रंगारंग कोलॉज है। इस में कुछ कहानियां हैं, कुछ संस्मरण हैं, कुछ जीवनी के टुकड़े हैं, कुछ रिपोर्ताज के हिस्से हैं। कई बार तो एक ही किस्से में कई कई विधाओं के रंग दीख पड़ते हैं जिससे विधाओं की हदबंदी से बाहर एक रवाँ, लचकदार और ललित विधा हमारे सामने हाजिर होती है, जिसकी शक्ल कहानी से मिलती-जुलती है पर वह उससे कहीं ज्यादा कुछ है। और पात्रों की तो पूछिए मत! इतने तरह के रंग-बिरंगे चरित्र इस किताब में बिखरे पड़े हैं कि जीवन का वैविध्य खुद-ब-खुद खुलता चला जाता है।
यहां विपश्यना का बखान करने वाले स्मगलर सज्जन हैं, चरस के शौकीन और लोटे से बाघ-वध का कारनामा सम्पन्न करने वाले गट्टू भाई हैं, सिजलर खा कर मुँह जलाते जयशंकर हैं, फेसबुक से धन्य और ध्वस्त हुए सुतली उस्ताद हैं, और एंगर-मैनेजमेंट करते हरकुवा गाँठी हैं। सूची काफी दिलचस्प और लम्बी है, किताब से गुजरते हुए आप इनके कारनामों से वाकिफ होंगे ही।
किस्सागोई की ठेठ देसी रवायत का ठाठ इस किताब में लहराता मिलेगा। दिलतोड़ हकीकतों की हौलनाक दुनिया को समझने-कहने के नाना प्रकार के रास्ते हमारे पुराने उस्तादों ने खोज निकाले थे। यह किताब उस रवायत की एक कड़ी है जहां गप्प रसाने के रास्ते हकीकत तक पहुँचा जाता है। साथ ही गप्प रसाने का भेद अगर किस्सागो को हो, तो किस्से का मजा दुगुना हो जाया करता है।
कपास देखी है आपने? बड़े-बड़े गुन होते हैं उसमें पर रस सिरे से नदारद। हिंदी गद्य की भाषा के बारे में आमतौर पर यह उपमा सटीक बैठती है, पर जब न तब कुछ प्रतिभा पगे इसे रसभीना बनाया करते हैं। इनमें से कुछ साहित्य के स्थापित हलकों से नहीं जुड़े होते। अशोक पाण्डे भी उनमें से एक हैं।
वैसे तो यह किताब देस-भाषा में लिखी गई है, जहां स्थानीयता की बहार है पर संस्कृत शब्दावली को व्यंग्य के लिए इस्तेमाल करने की तकनीक में यह किताब दक्ष है। उदाहरण लीजिए : ‘‘...जम्बू के छौंक वाले चटपटे आलू के गुटके परोसने वाली अपनी धुँवाई गुमटियों के तीर्थ सदृश महात्म्य के लिए द्वापर-त्रेता युग के समय से ही विख्यात रहा गरमपानी, रानीखेत से कोई तीसेक किलोमीटर दूर है।“
इस दिलचस्प गद्य की दूसरी खासियत ‘जैसा बोलता है, लिख’वाला ढंग है। इस सिलसिले से भी बस एक उदाहरण दूँगा, बाकी आप किताब में पढ़ेंगे ही, ‘‘आप समल्लें सुबे जल्दी उठना होगा, दिन भर में एक लफ्ज नईं बोलना होगा, दो टैम खाने को सादा खाना मिलेगा और आँख बंद कर के पैले दिमाग के अंदर लाल पॉइंट को ढूँढना होगा और उसके बाद उसी को देखते रैना। स्याम के साढ़े सात पे घास मिलेगी’’
इस किताब से गुजरना सरस और बेचैन कर देने वाला अनुभव है, मानो आप किसी विलक्षण हाजिरजवाब एंग्री यंगमैन के साथ यात्रा पर निकले हों। इस यात्रा पर आपका स्वागत है।
- मृत्युंजय
आगे पढ़ें
3 months ago
कमेंट
कमेंट X