बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में युवा कविता का जो स्वर उभरा था उसने कविता की दुनिया में देशव्यापी हलचल मचाई थी। आधी शताब्दी के स्थापत्य के प्रति विश्वव्यापी असहमति युवा स्वरों में उभरनी प्रारंभ हुई थी जिसके व्यापक अर्थ दुनियाभर में सृजनात्मक कोशिशों के रूप में प्रतिबिंबित हुए थे। उन्हीं कोशिशों में एक हिस्सा हिंदी का भी था और गंगा प्रसाद विमल एक सृजनशील कवि की तरह अपनी भूमिका निभाते रहे। हिंदी साहित्य जगत के लिए बहुत दुखद क्षण है कि आज विमल जी हमारे बीच नहीं रहे, उनकी स्मृतियां हमेशा हमारे साथ रहेंगी। प्रस्तुत है गंगा प्रसाद विमल की 3 चुनिंदा रचनाएं-
पहले मैं जिस्म में
कैद हूं
जिस्म
गुरुत्वाकर्षण में
गुरुत्वाकर्षण कैद है
सौरमण्डल के क्रम में
सौरमण्डल
आकाशगंगा में
अकाशगंगा
अंतरिक्ष में
बाहर से मैं
गुलाम हूं
इन्द्रियों का
इन्द्रियां वासना की
वासनाएं अर्थ की
अर्थ व्यवस्था की
व्यवस्थाएं विचार की दास
और विचार ही हैं
जो मुझे
मुक्ति के लिए
प्रेरित करते हैं
और विचार
खुद बंदी हैं
मस्तिष्क में
कहते हैं
मस्तिष्क आत्मा का गुलाम है
आत्मा मैंने कहां देखी है ?
मैं उसे देखता हूं
देखता हूं दूब की एक छोटी-सी
लहक में उससे
खुशगवार हवा दूर्वा के शिखरों में
भर देती है ताजगी
देखता हूं उसे
कलकल बहते जल में
ढलान देता है मार्ग
और चल पड़ता है नद
फिर-फिर मिलने दूसरे में
उसे मैं देखता हूं
सुबह में
शाम में
कभी-कभी विमोहित-सा
अपने काम में
उसे दूसरों की हंसी में
बच्चों की अबोधता में
उसे देखता हूं खुद कभी-कभी
अपने एकांत में
पर्वत-शिखरों के
श्वेताभ उजाले में
उन्मुक्ति का जो द्वार खुलता है
मंदिर की घंटियों में
सुषुप्ति से जागकर
देखता हूं उसे
सब ओर
जब तक ऐसा कर सकता हूं
वरना
बंद कर अंतरंग चक्षु
शामिल हो सकता हूं मैं
निंदकों, नास्तिकों,
प्रश्नकर्ताओं में
वहीं से आते हैं हत्यारे शोषक
वहीं से आती है अव्यवस्थाएं
सुख का एक छोटा सा टुकड़ा...
सुख का
एक छोटा सा टुकड़ा
टंगा है भविष्य के
आसमान पर
इंतजार कर...
सदियों से
आया है मुझ तक
स्मृतियों से होता हुआ
झर-झर
इंतजार कर...
सुख की वह
अदिखी इबारत
पढ़ तो लेता हूं
अपने भविष्य के अतीत में
अलिखित
ललचाता है मुझे
दूसरे सुखों को छोड़
त्याग का भोगीला सुख
भरता है सांसों में दम-भर
इंतजार कर...
और मैं
कभी न खत्म होने वाले
उम्मीद के उस टुकड़े से
बंधा हूं जी भर
इंतजार कर...
वह यही कहता है
अनाम भवितव्य
अलिखित
अदिखित
शेष
कई बार लगता है
मैं ही रह गया हूँ अबीता पृष्ठ
बाकी पृष्ठों पर
जम गई है धूल।
धूल के बिखरे कणों में
रह गए हैं नाम
कई बार लगता है
एक मैं ही रह गया हूँ
अपरिचित नाम।
इतने परिचय हैं
और इतने सम्बंध
इतनी आंखें हैं
और इतना फैलाव
पर बार-बार लगता है
मैं ही रह गया हुं
सिकुडा हुआ दिन।
बेहिसाब चेहरे हैं
बेहिसाब धंधे
और उतने ही देखने वाले दृष्टि के अंधे
जिन्होंने नहीं देखा है
देखते हुए
उस शेष को
उस एकांत शेष को
जो मुझे पहचानता है
पहचानते हुए छोड देता है
समय के अंतरालों में...
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मैं उसे देखता हूं...
2 years ago
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