भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर को सौंदर्य और विरह का गीतकार ही माना जाता है...जाति के नाई, समाज के उपेक्षित, अनपढ़ भिखारी खुद ही स्वीकार करते हैं-
श्री गणेश का चरनन में, नावत बानी सिर
कहे 'भिखारी' नाउ वंश पर, बहुत परल बा भिर॥
श्री गणेश के चरणों में बंदना करते हुए अरज कर रहा हूं, नाई वंश पर बहुत संकट है.. नापित यानी नाई पुत्र भिखारी अनपढ़ होने के बाद भी समर्थ रचनाकार की तरह अपनी रचनाओं से भोजपुरी का लोकवृत्त रचने में भी बड़ी भूमिका निभा चुके हैं...बिरही गीतों के अतिरिक्त उनके गीतों में बृहत्तर भोजपुरी समाज की चेतना और उसका भावी दर्शन भी है..
जर्मन दार्शनिक हैबरमास ने पब्लिक स्फीयर यानी लोकवृत्त की अवधारणा दी है...किसी भी समाज में मूल्यों का निर्माण उसके लोकवृत्त में ही होता है....कोई शक नहीं है कि भिखारी ठाकुर न तो हैबरमॉस को जानते होंगे, न ही उन्होंने लोकवृत्त की अवधारणा को पढ़ा था...
लेकिन उन्होंने भदेस भोजपुरी समाज में मूल्यों के जरिए लोकवृत्त रचने की कोशिश की, भले ही उसे उनके जीवन में तमासा मानकर खारिज किया गया, लेकिन अब वह समाज इन मूल्यों को या तो स्वीकार कर चुका है, या कर रहा है..
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से
भिखारी की ख्याति उनकी अमर कृति बिदेसिया के लिए है...नवोढ़ा के विरह के दर्द को सुर देने वाली इस प्रतिनिधि रचना में नवोढ़ा अपने प्रियतम के विरह में छटपटा रही है...भिखारी के शब्दों में..
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से,
अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।।
चढ़ली जवनियाँ बैरन भइली हमरी रे,
के मोरा हरिहें कलेस रे बिदेसिया।
यानी गौना कराकर सैयां मुझे घर बिठाकर पैसे के लोभ में परदेस चले गए हैं..मेरी चढ़ती जवानी मेरी दुश्मन बन गई है...नवोढ़ा पूछती है, भरी जवानी में मुझे घर में छोड़कर विदेश जा बसे परदेसी, आखिर मेरा दर्द कौन दूर करेगा...
इसी गीत में आगे दो पंक्तियां बेहद क्रांतिकारी हैं...आलोचकों को इसमें भी दर्द की ही झलक नजर आती है..लेकिन मुझे इसमें अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सुर नजर आता है...जरा आप भी देखिए...
एक दिन बहि जइहें जुलुमी बयरिया से,
डाढ़ि पात जइहें भहराइ रे बिदेसिया।।
भभकि के चढ़लीं मैं अपनी अँटरिया से,
चारो ओर चितवों चिहाइ रे बिदेसिया।।
शाब्दिक अर्थ तो इन पंक्तियों का यही निकलता है, विदेशी, एक दिन ऐसी जुल्मी आंधी आएगी और सारी डाल-पात को तहस-नहस कर जाएगी..तब मैं अपनी अटारी पर चढ़कर हैरत से चारों तरफ उस नजारे को देखूंगीं...शाब्दिक अर्थों में नायिका अपने परदेसी पति को एक तरह से खुद के खत्म हो जाने का उलाहना देती है...
भिखारी अंग्रेज सरकार को संदेश देते हैं....
लेकिन लगता है कि भिखारी इन पंक्तियों के जरिए तत्कालीन विदेशी शासन को एक तरह से संदेश देना चाहते हैं...कि अब तुम्हारा दिन बीत गया है। यहां आपत्ति हो सकती है कि जुल्मी शब्द का भिखारी ने क्यों इस्तेमाल किया...लेकिन जो भोजपुरी की चमत्कारिक भाषिकता को जो जानते हैं, उन्हें पता है कि भोजपुरी में कई बार सकारात्मक तौर पर भी जुल्म शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी का दारुण बांग्ला में जाकर सकारात्मक हो जाता है, कि दारुण चटनी...कितनी स्वादिष्ट चटनी...
भिखारी अंग्रेज सरकार को संदेश देते हैं कि अब वह दिन दूर नहीं..जब एक दिन ऐसी आंधी आएगी, जो तुम्हारे सारे सरंजाम को बहा ले जाएगी...फिर उसके बाद के नजारे को हम हैरत से देखेंगे...यह हैरत से देखना भी इसलिए, क्योंकि अंग्रेज सरकार ऐसी थी, जिसके शासन में कहीं सूरज नहीं डूबता था..ऐसे साम्राज्य का दरकना हैरत की ही बात होगी..
भिखारी ठाकुर की चर्चा विरह गीतों के लिए खूब की जाती है..अपनी रचनाओं के जरिए उन्होंने भोजपुरी समाज में नए संदेश दिए..लेकिन उन्होंने भोजपुरी समाज के हास्य और लास्य को भी बखूबी पेश किया है..जरा इस गीत को देखिए..
चलनी के चालल दुलहा, सूप के फटकारल हे,
दिअका के लागल बर, दुआरे बाजा बाजल हे।
दो चरण में दूल्हे का मजाक
भोजपुरी समाज में जब शादी के लिए दूल्हा कन्या के घऱ पहुंचता है तो महिलाएं उसका बहुत मजाक उड़ाती हैं..इसी वक्त का दृश्य है यह..जिसमें कहा जा रहा है कि दूल्हा छलनी का छाना हुआ है..सूप से उसे फटकार कर साफ किया गया है..
चूंकि दूल्हा खूब सजाधजा है..तो उस पर हास्य से भीगा व्यंग्य है..
आँवा के पाकल दुलहा, झाँवा के झारल हे;
कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे।
यानी कुम्हार के आवां में दूल्हे को पकाया गया है..झांवा (एक तरह का ईंट, कुछ-कुछ गंदी एड़ियां साफ करने वाले पत्थर जैसी ) से उसे साफ किया गया है..कलछी से उसे दागा गया है और बेवकूफपुर से भाग कर आया है..
दो चरण में दूल्हे का मजाक उड़ाए जाने के बाद वह अच्छा भी लगने लगता है...चूंकि दूल्हा सास को पसंद नहीं आ रहा है तो सास का भी इस गीत में कैसे मजाक उड़ाया गया है..
सासु का अंखिया में अन्हवट बा छावल हे,
आइ कs देखऽ बर के पान चभुलावल हेsss।
मउरी लगावल दुलहा
यानी सास की आंख में अंधेरा छा गया है..उससे कहा जा रहा है कि आकर देखो अपने वर को..किस तरह मुंह में पान घुला रहा है। फिर दूल्हे का मजाक शुरू हो जाता है-
आम लेखा पाकल दुलहा, गाँव के निकालल हे,
अइसन बकलोल बर चटक देवा का भावल हे।
यानी दूल्हा आम जैसा पका हुआ है...और गांव से निकाला हुआ है.. फिर व्यंग्य भी है..कि ऐसा बेवकूफ दूल्हा भी हमारी सुंदर कन्या के लायक है..और आखिर में दूल्हे का किस तरह स्वीकार है ..गीत की आखिरी पंक्तियों में देखिए..
मउरी लगावल दुलहा, जामा पहिरावल हे,
कहत ‘भिखारी’ हवन राम के बनावल हे।
भोजपुरी समाज में दूल्हे के सिर पर मुकुट जैसा मौर्य पहनाया जाता है..जिसे मऊरी कहा जाता है...यानी दूल्हा मौर्य से सज्जित है..बेहतरीन कपड़े में सजा हुआ ऐसा लगा रहा है, जे खुद भगवान राम ने उसे बनाया है..
इस गीत में देखिए..सारे उपमान ठेठ भोजपुरी समाज से लिए गए हैं..भिखारी की यही खासियत है और यही उनकी ताकत भी...इस गीत को चंदन तिवारी ने अपना सुर दिया है..उसे सुनते वक्त जिन्होंने भोजपुरी शादियां देखीं हैं, उनके सामने पूरी परंपरा, संस्कृति और उपमान जैसे जीवित हो जाते हैं..
अकाल के दौरान भिखारी ने ऐसे बांटा दर्द
विरह और सौंदर्य के गीतकार ने लोकवृत्त का कैसा ध्यान रखा था, इससे समझा जा सकता है..अकाल के दौरान भिखारी ने किस तरह अपने समाज का दर्द बांटा है..देखिए..
गईल-आईल-खाईल छुटल, टुटल तार दाहारन में
खैरात बंटात न बा कतहूं-युद्ध होखत बा सरकारन में।
यानी अकाल के चलते आना, जाना, खाना-पीना छूट गया है..रिश्तों के तार तक खत्म हो गए हैं..कहीं कोई खैरात नहीं बांटी जा रही..अलबत्ता सरकारों में खींचतान जरूर चल रही है। अपने आसपास के लोगों का जब दर्द भिखारी से नहीं देखा जाता, तो वे बरबस कह उठते हैं-
दुखिया सबको भूख लागत बा नहीं मिलत बा दरबारन में,
अति आरत बैन भिखारी कहैं, श्री गोविन्द लागल गोहारन में
यानी अकाल की विभीषिका से सभी दुखी हैं, अब तो हालत यह हो गया है कि लोगों को भूख भी नहीं लगती..(लग ही जाए तो कुछ मिलने का ठिकाना नहीं है)। भिखारी कहते हैं कि हालत ऐसी है...अब लोग सिर्फ गोविंद को गोहराने को मजबूर हो गए हैं। इसी गीत में आगे भिखारी कहते हैं-
हाथी-घोड़ा के सवारी रहे, बनिया गिरहस्त पैदल धावल
आज के रीति 'भिखारी' कहे, घर-ही-घर में पांव-गाड़ी चलावल
यानी अकाल के चलते हालत कितनी खराब है कि जिनके पास कभी हाथी-घोड़ा होते थे, वे अब पैदल चलने को मजबूर हैं
भारतीय राजनीति में भोजपुरी समाज चाहे जितना भी स्वाभिमानी रहा हो, लेकिन वह सत्ता तंत्र के लिए उपेक्षा का ही पात्र रहा है..इसे ही भिखारी अपने इसी गीत में आगे जाहिर करते हैं-
एको अनाज ना दाम से मिलत, काई परी पेट भितर धानी
अति आरत होके 'भिखारी' कहै, सुधिलऽ कलकत्ता के काली भवानी॥
यानी पैसा खर्च करने से भी अनाज नहीं मिल रहा..किस तरह लोग अपना पेट भरें...लिहाजा लोग कमाने के लिए कलकत्ता जाने के लिए मजबूर हैं। और इस गीत में भी भिखारी आखिर में पलायन की मजबूरी और पीड़ा को उजागर कर ही देते हैं..
कमेंट
कमेंट X