प्रेमचंद जी जो जिए वही रचा, उन्होंने ने अपने उपन्यासों में चरित्र को ही प्रधानता दी। यूरोपीय उपन्यास की विकास की भी यही दिशा है। विश्व के तीन महान साहित्यकार मैक्सिम गोर्की, शरद्चंद और प्रेमचंद 1936 में ही दुनिया से चल बसे ! शरदचंद के उपन्यास पढ़ने पर पाठकों की आँखें नम होती हैं मगर ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद के उपन्यास पढ़ने पर आँखें नम नहीं होती हैं। जो आँसू आँख से निकलकर आँख में ही छलछलाकर ही रह जाय, उस आँसू में ज्यादा टीस होती है। प्रेमचंद के उपन्यास आंखों में आँसू लाते हैं मगर वे आँसू पाठक को क्रांति के लिए मजबूर कर देते हैं।
प्रेमचंद के पात्र ज्यादातर निम्न वर्ग से ही थे। उनके उपन्यासों में रोटी गूंजती है। आजादी के समय गाँधीजी जो काम आंदोलन के जरिए करते रहे, वह प्रेमचंद जी साहित्य में लिखकर करते रहे। प्रेमचंद जी बोलते थे कि मैं उस पार्टी का सदस्य हूं जो भारत में अभी तक बनी ही नहीं है। इससे उनकी साम्यवादी स्थिति दृष्टिगोचर होती है। प्रेमचंद को कई लोग गाँधीवादी, मार्क्सवादी, आर्यसमाजी, मानते हैं मगर उनका कहना था कि जिससे निम्न वर्ग का भला हो मैं उसी वाद से प्रभावित हूं।
राजनीति में किसानों की ताकत को गाँधी ने पहचाना और साहित्य में किसानों की ताकत को प्रेमचंद ने पहचाना। उनका मानना है कि कोई भी रचना जीवन का अनुवाद होती है विचारधारा का नहीं। प्रेमचंद के साहित्य में चार वर्ग हमेशा साहनुभूति पाते रहे (1) सीमांत किसान (2) मजदूर वर्ग (प्रेमचंद के पूरे साहित्य में कहीं भी इनके लिए क्रुर भावना नहीं है।) (3) अछूत (4) नारी।
प्रेमचंद जी ने इन चारों की भलाई के लिए किसी भी दर्शन का सहारा ले लेते हैं। उनका मानना है कि गरीबी दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। गोदान 1936 में लिखा गया था जो इनके मृत्यु का साल है, यह उपन्यास अपने युग जीवन का प्रतिबिंब भी है और आने वाले युगों की कसौटियाँ ! जिस तरह से नम मिट्टी से कोई छोटी पौध उखाड़ने पर उसकी जड़ के साथ मिट्टी भी लगी चली आती है। उसी तरह प्रेमचंद के पात्रों के साथ युग समाज और राष्ट्र की समस्याएँ लगी चली आती हैं। इसी खुबी के कारण ही प्रेमचंद के पात्र व्यक्ति चरित्र भी हैं और टाइप भी।
गोदान के नायक होरी में एक सीमांत किसान की सारी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हैं। होरी सामान्य और विशेष का संशलिष्ठ है। होरी जीवन भर अपने भाग्य को कोस कर रह जाता है। अजीब बात है कि इस उपन्यास में होरी किसी से टकराता नहीं है लेकिन फिर भी चारों खाने चित्त हो जाता है ! कोई एक आदमी उसका दुश्मन नहीं है, दुश्मन है यह पूरी की पूरी व्यवस्था जो उसे कर्ज और सूद की ढरकी पिला कर मार डालते हैं।
होरी का अंत निश्चय ही सीमांत किसान की मोहमंग की कहानी है, होरी का यह मोहभंग किसी एक घटना का नतीजा नहीं है, यह नतीजा है कृषि का अलाभकरी होने का, कृषक के मरजाद के ध्वस्त होने का। जिस देश का सीमांत किसानों की फसलें खलिहान से उठकर महाजन के घर चली जाती हैं, उस देश के सीमांत किसानों की नियति मोहभंग की ही हो सकती है। सच्चाई यह है कि किसानी न आजादी के पहले लाभकर थी और न ही आजादी के बाद।
डाॅ. नवीन कुमार, गोड्डा, झारखंड
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1 month ago
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