मीरा जी उर्दू के एक शायर थे, 1912 में 25 मई को पैदा हुए। मुझे बेहद पसंद हैं, पसंद सिर्फ़ इसलिए नहीं क्यूंकि अज़्मतुल्लाह ख़ान की तरह उन्होंने भी उर्दू को फ़ारसी अरबी लफ़्ज़ियात के फेर से निकाल कर उसे अपनी जड़ों यानी हिंदी ज़बान और तहज़ीब के नज़दीक किया बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने इश्क़ पर अपना सब कुछ वार दिया और पहचाने गए हवस के जज़्बे की वजह से। उन्होंने एक नज़्म में लिखा है-
क्या इश्क़ जो इक लम्हे का हो
वो इश्क़ नहीं कहलायेगा
तुम उसको हवस क्यों कहते हो
उनका असली नाम सना उल्लाह डार था, मगर पहचाने गए मीरा जी के नाम से। वजह ये थी कि एक बंगाली लड़की से उन्हें इश्क़ होगया था जिसका नाम मीरा था। सो मीरा जी ने अपने नाम में उसे शामिल करके अपने साथ उसे भी अमर कर दिया। बड़ी दिलचस्प और अलग शख़्सियत थी उनकी। जोगी भी थे और रोगी भी।
इश्क़ और वस्ल से भरी नज़्में
एक ज़माने में मलंगों का सा भेस बना कर, बाल और मूंछें बढ़ा कर, सर्दी हो या गर्मी, क़मीज़ पर एक मोटा कोट डाले रहते थे। देखने वाले हैरान होते। उनकी नज़्में बिलकुल अलग तरह की हैं, इश्क़ और वस्ल में डूबी हुई ज़िंदा नज़्में, जो पढ़ने वाले को महरूमी, उदासी और बैराग के जंगलों में भटकाती हैं, शादी नहीं की, मीरा के अलावा और दो लड़कियां उनके जीवन में आयीं मगर शादी किसी से नहीं की।
कोई उनसे शादी करता भी क्यों। महीनों महीनों वो नहाते नहीं थे। किसी धर्म या मज़हब को मानते नहीं थे। घर छोड़ कर चले आये थे और कभी पलट कर नहीं गए, मगर कभी कभार अपनी माँ को याद किया करते थे, उनके छोटे भाई ने उनकी बहुत सी नज़्मों को रद्दी में बेच दिया था, इस बात से कभी दुखी भी हुआ करते थे।
मंटो ने मीरा जी का स्केच लिखा है
मंटो ने मीरा जी का स्केच लिखा है, जिसका नाम है 'तीन गोले' उसमें मंटो ने बताया है कि एक ज़माने में न जाने कहाँ से उनके हाथ लोहे के तीन गोले लग गए थे, हर वक़्त उन्हें खनकाते घूमा करते। फ्रांस का एक शायर है, बहुत मशहूर चार्ल्स बौदलेयर।
वो मीरा जी को बहुत पसंद था, उनकी पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं के शायरों पर बड़ी गहरी नज़र थी, इसलिए उन्होंने अपनी एक किताब 'मशरिक़ ओ मग़रिब के नग़मे' में ईस्ट और वेस्ट के बहुत से बा-कमाल शायरों की कविताओं को न सिर्फ़ उर्दू में ट्रांसलेट किया बल्कि उनके परिचय के तौर पर लम्बे लम्बे आर्टिकल्स भी लिखे।
मीरा जी बहुत पढ़ा करते थे, उन्हें क्राइम मैगज़ीन्स बहुत पसंद आते थे, हर समय उनके पास एक न एक इस तरह का मैगज़ीन रहा ही करता था। वो यही कोई पैंतीस छत्तीस बरस तक जिए। मुंबई में मशहूर शायर अख़्तर उल ईमान के यहाँ उन्होंने अपने जीवन के आख़री दिन काटे, जो बड़े भयानक और अजीब थे।
.जिनके बारे में अख़्तर उल ईमान ने उस किताब के दीबाचे में लिखा है जो मीरा जी के मरने के बाद उनके ऐसे कलाम को समेटे हुए थी, जो उससे पहले कहीं प्रकाशित नहीं हुआ था।
मैं अगर किसी शायर को दिन रात पढ़ता रहूं या उसके बारे में बात करके बोर न हूँ तो वो मीरा जी ही होंगे। ऐसी दिलचस्प और अजीब ओ ग़रीब शख़्सियत रोज़ रोज़ कहाँ पैदा होती है। उनके कुछ बहुत दिलचस्प क़िस्से आपके साथ आज शेयर करूँगा। मगर एक तो अभी ही सुन लीजिये। उर्दू के एक बहुत बड़े पब्लिशर और राइटर हुआ करते थे, जिनका नाम शाहिद अहमद दहलवी था।
उन्होंने मीरा जी के बारे में लिखा है कि जब उनकी किताब छपती थी तो उन्हें पैसे मिला करते थे। एक रोज़ वो मुझसे तीन सौ, चार सौ रुपया ले गए। मगर उनकी आदत ये थी कि जब उनकी जेब में पैसे होते तो शराब पीने जाते। फिर जो दो सौ तीन सौ रुपया बच जाता, वो वापसी में किसी मुसाफ़िर, ग़रीब या ज़रुरत-मंद को दे देते।
एक दफ़ा जब वो शराब ख़ाने से निकले तो किसी पुल के नीचे एक ठेले वाला मुंह लटकाये खड़ा था, हलकी हलकी बरसात हो रही थी, मीरा जी ने पूछा, मियाँ बरसात हो रही है, रात का बारह बज रहा है, अभी तक यहाँ क्यों खड़े हो, उसने बताया के आज बिक्री ही नहीं हुई, सामान ज्यों का त्यों पड़ा है, घर जाने की हिम्मत ही नहीं होती।
मीरा जी ने अपनी जेब से बचे हुए पैसे निकाल कर उसे दिए और कहा 'जाओ! घर जाओ!' वो ऐसा हर बार करते और अगले दिन पाई पाई को मोहताज हो जाते और दोस्तों से उधार मांग कर काम चलाते।
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इश्क़ और वस्ल से भरी नज़्में
3 years ago
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