छुट्टी के एक दिन दोपहर को किसी ने दरवाजा खटखटाया। मैं शहर में नया-नया आया था किसी की प्रतीक्षा भी न थी। ऊपर से झाँक कर देखा, हिंदी के एक अत्यंत प्रतिष्ठित और बुजुर्ग रचनाकार दरवाजा पीट रहे थे। मैं भाग कर नीचे पहुँचा, उन्हें दफ्तर में बैठाया। आदर सत्कार क्या करता, घर में चाय बनाने की भी सुविधा न थी और सर्वेश्वर के शब्दों में कहूँ तो जीवन 'खाली जेबें, पागल कुत्ते और बासी कविताएँ' था।
खाने पीने की व्यवस्था अश्क जी के यहाँ थी, इसलिए निश्चिंत था। मुझसे अश्क जी की एक ही अपेक्षा थी कि वे दिन भर जितना लिखें, मैं शाम को सुन लूँ। शुरू में तो यह बहुत सम्मानजनक लगता था कि एक अत्यंत वरिष्ठ लेखक मुझे इस लायक समझ रहा है कि मैं उनकी रचना पर कोई राय दे सकूँ। मगर कुछ दिनों बाद मैं इससे ऊबने लगा।
'आज बहुत मुसीबत में तुम्हारे पास आया हूँ।' उन बुजुर्ग रचनाकार ने बताया कि उनकी पत्नी को 'हार्ट अटैक' हो गया है और उन्हें किसी भी तरह सौ रुपए तुरंत चाहिए।'
सौ रुपए उन दिनों एक बड़ी रकम थी और मैंने दिन भर के लिए किसी तरह एक अठन्नी बचा कर रखी हुई थी। मेरे लिए अचानक एक संकट खड़ा हो गया। चाह कर भी मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सकता था। मैंने अत्यंत सकुचाते हुए उन्हें बताया कि उन्हें यकीन तो न आएगा मगर सच्चाई यही है कि मेरे पास इस समय सिर्फ एक अठन्नी है।
वह हैरत और अविश्वास से मेरी ओर देखने लगे। उनके चेहरे के आईने में मेरा गैरलेखकीय महाजनी चेहरा मुझे ही चिढ़ा रहा था। मुझे लगा, मेरी बात सुन कर वह संतप्त ही नहीं, आहत भी हुए हैं। उन्होंने नजर उठा कर प्रेस का जायजा लिया और लंबी साँस भरते हुए बोले, 'जो ईश्वर को मंजूर है। कहीं और जा कर हाथ फैलाता हूँ।'
यह देख कर मुझे भी मर्मांतक पीड़ा हो रही थी कि इतने वर्ष घोर तपस्या करने का समाज ने उन्हें यह पुरस्कार दिया है कि वह अपनी पत्नी के इलाज को मुहताज हैं। वह कुछ देर तक चिंतामग्न बैठे रहे, पानी पिया और बोले, 'आप वह अठन्नी ही दे दीजिए ताकि रिक्शा करके दौड़ भाग कर सकूँ।' मैंने खुशी-खुशी अपनी अंतिम पूँजी उन्हें सौंप दी। यह दूसरी बात है कि मैं अब सिगरेट के लिए भी मोहताज हो गया था।
हिंदी के वह मूर्द्धन्य साहित्य साधक चले गए। मुझे भी कोई काम नहीं था, मैं भी उनके पीछे चल दिया, यह सोच कर कि देखते हैं इस विषम परिस्थिति से वह कैसे निपटते हैं। वह लोकनाथ की तंग गलियों में खरामा-खरामा बढ़ने लगे। चौराहे पर एक पान की दुकान पर उन्होंने एक जोड़ा पान लिया और कुछ दूर जा कर रिक्शा में बैठ कर कहीं रवाना हो गए।
मैं पैदल ही लूकरगंज की तरफ चल दिया ज्ञान के यहाँ। ज्ञान को बताया कि अमुक लेखक की पत्नी को हार्ट अटैक हो गया है और वह बहुत परेशान थे। ज्ञान पर मेरी बात का कोई असर न हुआ, बोला, 'भैया यह इलाहाबाद है। इसकी लीला न्यारी है। तुम अपना खून मत सुखाओ। उनकी पत्नी स्वस्थ प्रसन्न हैं और संगम पर एक आश्रम में कल्पवास कर रही हैं। यकीन न हो तो चलो मेरे साथ अपनी आँखों से देख लो।'
ज्ञान ने लोकनाथ जा कर नाश्ता कराया और फिर हम लोग सचमुच संगम की तरफ चल दिए। जब तक हम सच्चा बाबा आश्रम पहुँचे दोपहर ढल चुकी थी। सच्चा बाबा के आश्रम में प्रवचन कीर्तन का माहौल था। हमने देखा लेखक दंपति तन्मयता से कीर्तन-भजन में संलग्न थे।
मेरे लिए यह संतोष का विषय है कि तीस वर्ष बाद भी वह लेखक उसी प्रकार साहित्य साधना में लीन हैं, सपत्नीक स्वस्थ प्रसन्न हैं। उनकी गर्दिश का दौर अभी तक जारी है और प्रयाग की तपोभूमि पर वह अपनी अलख जगाए हुए हैं। प्रयाग का यह फक्कड़ अंदाज आज भी रचनाकारों को आकर्षित करता है। मुफलिसी यहाँ अभिशाप नहीं, सहज स्वीकार्य है। सुविधाओं, पुरस्कारों और सम्मानों की अंधी दौड़ यहाँ के माहौल से एकदम नदारद है।
साभार: गालिब छुटी शराब, रवीन्द्र कालिया
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2 months ago
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