कई सप्ताह बिताने के बाद एक दिन लिखने बैठ गया। लिखने बैठ गया, कहना ठीक नहीं होगा। ऐसा लगा कि किसी ने मुझे पकड़ कर बैठा दिया। सपना साकार हो गया.... आकाश में विशाल बरगद की शाखाएँ तन गईं, जटाएँ हिलने लगीं और डाल-डाल पर असंख्य पंछियों के कलरव कूजन... प्रशांत मुखमंडल पर एक प्रसन्न मुस्कान।
तन-मन हल्का हो गया - भारहीन। उस अपूर्व आनंद के प्रथम आस्वाद को भूल नहीं पाया हूँ। अपनी ही लिखी हुई कहानी पढ़कर अचरज में पढ़ गया था - मेरी लिखी कहानी...
कहानी का शीर्षक 'बट बाबा' देकर चुपचाप साप्ताहिक 'विश्वमित्र' (कलकत्ता) के संपादक के नाम रजिस्टर्ड पैकेट भेज दिया सेवा में प्रकाशनार्थ एक कहानी...!
कई सप्ताह के बाद संपादकजी का प्रोत्साहनपूर्ण पत्र मिला और साथ ही विश्वमित्र का ताज़ा अंक, जिसमें मेरी पहली कहानी 'बट बाबा' छपी थी। दौड़कर दादी के पास गया चरण स्पर्श कर बोला, "दादी! तुमने हमें बचपन से ही न जाने कितनी कहानियाँ सुनाई होंगी... इस बार मैं तुमको एक कहानी सुनाऊँ।"
कहानी समाप्त करके देखा, दादी की आँखों में एक अलौकिक ज्योति-सी कुछ जगमगा रही थी। उनका झुर्रीदार चेहरा अचानक दमकने लगा था। गद्गद् कंठ से बोली थीं - "बट बाबा की महिमा लिखकर तुमने समझो कि अपने 'पुरखों' को पानी दिया है। तुमने सारे गाँव के लोगों की ओर से बट बाबा की समाधि पर पहला फूल चढ़ाया है। बाबा की कृपा बरसती रहे सदा..."
आज भी, सुख-दुख के झकोलों पर जब कभी दिशाहारा-सा होने लगता हूं, अपने गाँव का आकाश अजनबी लगने लगता है, जब कभी अथवा किसी अव्यक्त व्यथा से मन भारी हो जाता है, आँखें मूंदकर गरदन झुका लेता हूँ। मन के आईने में एक तस्वीर स्पष्ट हो जाती है... एक विशाल महीरूह के नीचे खेलता हुआ एक शिशु नन्हा-सा जटाजूट बाबाजी हँसकर अलख जगाता हुआ - चिमटा खनकता है। स्पष्ट सुनता हूँ, कोई मेरा नाम लेकर प्यार से पुकारता है। पुकारता रहता है...।
9 months ago
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