Naseer Turabi: कोई आवाज़ न आहट न ख़याल ऐसे में, रात महकी है मगर जी है निढाल ऐसे में
कोई आवाज़ न आहट न ख़याल ऐसे में
रात महकी है मगर जी है निढाल ऐसे में
मेरे अतराफ़ तो गिरती हुई दीवारें हैं
साया-ए-उम्र-ए-रवाँ मुझ को सँभाल ऐसे में
जब भी चढ़ते हुए दरिया में सफ़ीना उतरा
याद आया तिरे लहजे का कमाल ऐसे में
आँख खुलती है तो सब ख़्वाब बिखर जाते हैं
सोचता हूँ कि बिछा दूँ कोई जाल ऐसे में
मुद्दतों बा'द अगर सामने आए हम तुम
धुँधले-धुँधले से मिलेंगे ख़द-ओ-ख़ाल ऐसे में
हिज्र के फूल में है दर्द की बासी ख़ुश्बू
मौसम-ए-वस्ल कोई ताज़ा मलाल ऐसे में
2 months ago
कमेंट
कमेंट X