वो ख़ुश-कलाम है ऐसा कि उस के पास हमें
तवील रहना भी लगता है मुख़्तसर रहना
खुली किताब थी फूलों-भरी ज़मीं मेरी
किताब मेरी थी रंग-ए-किताब उस का था
या अब्र-ए-करम बन के बरस ख़ुश्क ज़मीं पर
या प्यास के सहरा में मुझे जीना सिखा दे
मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
हर-चंद तेरी याद मिरे आस पास थी
इतना न पास आ कि तुझे ढूँडते फिरें
इतना न दूर जा के हमा-वक़्त पास हो
रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने
किसी पागल की तरह नक़्श मिटाने वाला
धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
अब कहाँ आएगा वो लौट के आने वाला
ये किस हिसाब से की तू ने रौशनी तक़्सीम
सितारे मुझ को मिले माहताब उस का था
समेटता रहा ख़ुद को मैं उम्र-भर लेकिन
बिखेरता रहा शबनम का सिलसिला मुझ को
बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर
फिर खुला क्यूँ रह गया था एक दर मेरे लिए
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1 month ago
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