Social Media Poetry: तुमने प्रेम मांगा था, मेरे पास प्रतीक्षा थी
तुमने प्रेम मांगा था
मेरे पास प्रतीक्षा थी
मैंने प्रतीक्षा की थी, वही जमा होती रही मेरे पास
देर तक निहारता रहा पत्थर कि भगवान निकलेंगे
देखता रहा रेगिस्तान कि अभी नदी बहेगी यहीं
आसमान को हाथ से छू लूंगा
ज़मीन को सिर पर उठाए चलूँगा
मैं अपने आज में इस तरह धंसा था कि
कल आता ही नहीं था
मैं एक रुके हुए क्षण में न जाने कितने जन्मों से प्रतीक्षारत था
और तुमने मुझसे कहा: जल्दी आना
मैं नहीं जानता अपने घर का पता
अपनी देह में रहते हुए आदमी को भी नहीं जानता
सुबह उठ कर सोचता हूँ पूर्वजन्म में क्या था
कि इस जन्म में वह हो गया जो मैं हूँ
मैं कैसे आ सकता था जल्दी
जल्दी कैसा तो शब्द है
जैसे दूर कोई तारा हो और मैं तरसती हुई आँख
नींद का एक सुनहला टुकड़ा और मैं एक अभागी जाग
ऐसा नहीं कि एकदम अनजान हूँ
मुझे पीड़ाओं का पुल बनाना आता है
उसी से यहां इस निर्जन में पहुँचा हूं
और पहुँच कर लौट नहीं पा रहा
पीड़ाओं के पुल में वापसी के रास्ते नहीं होते
मुझे मालूम है प्रतीक्षा धीरे धीरे छीलती है देह
धीरे धीरे उतारती है आत्मा के छिलके
रात में बो देती है कटीले पौधे
आईने के सामने किसी अजनबी को खड़ा कर देती है
हृदय पर एक कील ठोंकती है
और उसी पर टांग देती है सारा अस्तित्व
मुझे मालूम है नदी में डूबते आदमी को किस चीज़ की प्रतीक्षा होती है
तुम जिसे प्रेम करते हुए भाप हुआ जा सकता था
हवा में घुल रही होगी
बारिश में तुम्हें निहारते हुए बना जा सकता था पानी
तुम प्यास से तड़पती होगी और मेरा नाम लेती होगी
मुझे माफ़ कर सको तो भी माफ़ मत करना
तुमने मुझसे प्रेम माँगा था
मैंने तुम्हें प्रतीक्षा दी
साभार: अनुराग अनंत की फेसबुक वाल से
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1 month ago
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