प्राप्ति की इच्छा प्रेम की दीमक है
चाट जाती है पूरी पूरी काठ
और जैसे टूटती है बीच रात नींद
वैसे ही टूटता है प्रेम
करकता रहता है भीतर ही भीतर
जिस क्षण में होता है प्रेम
उस क्षण में ही पूर्ण हो जाता है
वह बस स्टॉप पर खड़ा मुसाफिर नहीं
जो समय को तरफ लाचार निगाहों से देखे
खोने-पाने के भय से मुक्त नहीं हो सका जो
वह प्रेम भला क्या मुक्ति दे सकेगा
और जो मुक्ति नहीं दे सकता
वह कुछ भी हो सकता है
प्रेम नहीं हो सकता
प्रेम दो को ऐसे बांधता है कि
वे एक हो जाते हैं
वे इस तरह एक होते हैं कि
मुक्त हो जाते हैं हर तरह के बंधन से
अनिश्चितता और आशंका से
भय से और अनजाने के आतंक से
अब प्रेम आए तो उसे 'आया' कहना
यह तुम्हारी हर तरह की गर्भनाल काट देगा
तुम्हें ऐसे मुक्त करेगा
जैसे नवजात होता है
निष्कपट और निश्छल
साभार अनुराग अनंत की फेसबुक वाल से
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1 month ago
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