जब भाषा नहीं रही होगी
तो लोग झूठ नहीं बोलते होंगे।
किसी तरह की भाषा न रहने पर
किसी तरह का झूठ नहीं बोला जा सकता
तो झूठ यदि दोष है
तो इस दोष का कारण भाषा है।
तब जब परिवार नहीं रहा होगा
तब पिता भी नहीं होते होंगे
जब पिता नहीं होते होंगे
तो पितृसत्ता भी नहीं होगी
पितृसत्ता यदि दोष है
तो यह परिवार का दोष है।
यदि कवि कहे भाषा के दोष से झूठ उपजा
परिवार के दोष से पितृसत्ता
तो क्या ग़लत होगा।
जब गिनती नहीं रही होगी
तो हम गिनते नहीं होंगे।
गिनती की वजह से ही हमनें गिनी अपनी हार और जीत
हमनें गिना कितनी लड़कियों से प्रेम किया
कितनों से किया सिर्फ़ प्रेम का अभिनय
कितनों के साथ सोए और कितनों के साथ जागने का स्वप्न देखा
कितनी असर्फियाँ जोड़ीं। कितना लाभ कमाया। कितने का घाटा हुआ।
जिंदगी यदि व्यापार और संसार यदि बाजार हुआ
तो इसमें गिनती का दोष है
गिनती ने मनुष्य को प्रतिशतता में देखने की सुविधा दी
सफलता को पूर्ण संख्या में
दशमलव लगा कर संभावनाएं आईं
और सिर पर शून्य ढोते हुए निराशा
यदि गिनती नहीं होती तो मनुष्य संख्या नहीं होता
हादसों में मरे हुओं को हम नाम से जानते शायद
जनता को जनसंख्या नहीं कहते
गिनती नहीं होती तो हम भेड़ों में नहीं बदलते
और कोई चरवाहा हमें यूँही हांकता नहीं
मनुष्य के भेड़ बन जाने का दोष संख्या सिर है।
धर्म नहीं होता तो ईश्वर नहीं होता
या ईश्वर नहीं होता तो धर्म की क्या जरूरत थी
ईश्वर और धर्म ने पैदा किए स्वर्ग और नर्क
पाप और पुण्य
धर्म और ईश्वर का दोष है
स्वर्ग-नरक। पाप-पुण्य।
मनुष्य का दोष बस इतना ही है
कि वह भाषा, गिनती, परिवार, ईश्वर और धर्म के बिना काम नहीं चला सका
जीवन की कल्पना करते हुए
उसने भाषा, परिवार, गिनती, ईश्वर और धर्म के बारे में सोचा
और उसी में उलझे रहने को जीवन कहा।
मनुष्य का दोष बस इतना है उसने दोष को गुण समझा
और अपने सिर पर सिंहासन लगने दिया
दोष बैठते रहे उसके सिर पर
जैसे राजा बैठता है सिंहासन में
पैर पर पैर चढ़ाए हुए
छाती फुलाए हुए
भौंहें बिचकाए हुए
अपने भीतर की सहजता दबाए हुए।
साभार: अनुराग अनंत की फेसबुक वाल से
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3 months ago
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