ज़रा शिकस्तगी थोड़ी उड़ान रहने दो
बहुत ज़मीन, ज़रा आसमान रहने दो
हमारे दुश्मनों, तुमसे दुआ-सलाम रहे
तेरे शहर में हमारा मक़ान रहने दो
बुलंदियों के लिए सीढ़ियां हज़ार रहें
मगर ज़मीन तलक इक ढलान रहने दो
अब न वो जिस्म न वो आग रही है बाकी
चंद किस्से हैं मगर दरमियान, रहने दो
तेरी आग़ोश में आकर हमें न होश रहे
हमारी रूह में इतनी थकान रहने दो
कभी-कभी ज़रा बेचैन भी करो हमको
कभी-कभी तो ज़रा इत्मीनान रहने दो
साभार ध्रुव गुप्त की फेसबुक वॉल से
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