बेटे को घोड़ी पर चढ़ता देखना, बेटी का कन्यादान हर घर में पलने वाला सपना है। इस सपने को पूरा होता देखने के लिए माता-पिता को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह वही जानते हैं। सरपट दौड़ती जिंदगी में कमजोर पड़ते सामाजिक बंधन, कॅरिअर बनाने की चाह में बढ़ती जाती उम्र और भावी वर-वधू से अपेक्षाओं ने सुयोग्य मेल की तलाश चुनौतीपूर्ण बना दी है। वर-वधू की तलाश में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इसे लेकर अमर उजाला ने शहर में 20 से अधिक वर्षों से चल रहे कई मैरिज ब्यूरो के आंकड़ों, यहां आने वाले आवेदनों व संचालकों के पास इकट्ठा जानकारियों को खंगाला। साथ ही कुछ ऐसे परिवारों से बात की, जिनके यहां इसी सहालग में शादियां प्रस्तावित हैं। पढ़िए, बदलावों की पड़ताल करती रिपोर्ट...।
क्या कहता है मां का अनुभव
शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में मनोविज्ञान की शिक्षिका डॉ. सृष्टि श्रीवास्तव की बेटी की शादी इसी सहालग में हुई है। लगभग साल भर पहले उन्होंने ऑनलाइन साइट पर रजिस्ट्रेशन करवाया था। साल भर लगे उन्हें सुयोग्य वर की तलाश में। इस दौरान उन्होंने हर बायोडाटा, वर पक्ष की मांग को परखा। उनके निष्कर्ष ये रहा।
नकारात्मक पक्ष : सामाजिक बंधन कमजोर पड़े हैं, रिश्ते करवाने का कोई जोखिम लेना नहीं चाहता। विश्वसनीयता का संकट है। लड़का-लड़की के बारे में सही जानकारी देने वाले कम हुए हैं। लड़कियों के लिए शर्त-चश्मा न लगाती हो, देखने में सुंदर हो, ब्यूटी टेस्ट देना होगा।
सकारात्मक पक्ष : अब हर फैसले में बेटा और बेटी बराबर से शामिल होते हैं। खास बात है कि बेटियों की हां के बाद ही माता-पिता रिश्ते को हां कहते हैं।
मैरिज ब्यूरो की मदद लेने वालों में रिश्तेदारों से दूरी वाले ज्यादा
एडवाइजर सैय्यद अहमद विगत 25 से ज्यादा वर्षों से अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं। वह बताते हैं कि हर दिन वेबसाइट पर विजिट करने और आवेदन करने वालों का औसत 300 से 400 के बीच है। उनके मुताबिक, काम को लेकर अपने मूल निवास से दूर होते जा रहे लोगों से नाते-रिश्तेदार, आस-पड़ोस सब छूटता जा रहा है। मैरिज ब्यूरो से संपर्क करने वालों में गांवों से शहरों की ओर आए लोगों का प्रतिशत ज्यादा है। नाते-रिश्तेदार, पट्टीदार-बड़े-बुजुर्ग आदि से दूर हुए इन लोगों के सामने रिश्ते ढूंढने में चुनौतियां बढ़ गई हैं।
करीब 20 वर्षों से वेडिंग कंसल्टेंट का काम कर रहीं चारू श्रीवास्तव कहती हैं कि 15 से 20 क्लाइंट महीने में मिलते हैं, पर हम स्क्रूटनी के बाद छह से अधिक क्लाइंट नहीं लेते। पहले विवाह तय होने में रिफरेंस सिस्टम की अहम भूमिका होती थी। विवाह तय कराने में सूत्रधार की भूमिका निभाने वाले व्यक्ति का मान-सम्मान ताउम्र होता था। अब कोई लड़का या लड़की या किसी परिवार को लेकर जोखिम लेना नहीं चाहता।