'भारत बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेज दर से बढ़ रही है। विदेशी निवेश के मामले में हम कई पायदान ऊपर चले गए हैं। कारोबार और रोजगार के लिए माहौल अच्छा है।' सरकार की तरफ से हम ये जुमले अक्सर सुनते हैं। मगर इस तरक्की को हम अपनी जिंदगी में महसूस नहीं कर पाते। आखिर क्या वजह है कि अगर देश इतनी तरक्की कर रहा है फिर भी लोगों की तनख्वाहें नहीं बढ़ रही हैं?
ऐसा महसूस करने वाले हिंदुस्तान में ही नहीं हैं। ब्रिटेन की रहने वाली लूसी किर्कनेस को ही लीजिए। वो नौकरी करती थीं, तो उन्हें लगता था कि तनख्वाह कम है। शानदार काम करने के बावजूद उन्हें अलग से कुछ इनाम नहीं मिलता। लूसी कहती हैं कि उन्हें महसूस हो रहा था कि काबिलियत के हिसाब से तनख्वाह बढ़ ही नहीं रही। अपनी कमाई और जिंदगी बेहतर करने के लिए लूसी ने नौकरी छोड़कर अपना धंधा शुरू किया। अब वो अपनी खुद की डिजिटल कंपनी चलाती हैं।
लूसी खूब मेहनत करती हैं ताकि उनके कर्मचारियों को ये न महसूस हो कि उन्हें कम सैलरी मिलती है। लूसी बताती हैं कि, 'हमारी कंपनी में शुरुआती सैलरी 30 हजार पाउंड सालाना है'। इसके अलावा वो नया बिजनेस लाने वालों को उसका दस फीसद कमीशन देनी हैं। साथ ही मुनाफे में भी कंपनी के कर्मचारियों का हिस्सा लगाती हैं।" लूसी कहती हैं कि वो ऐसा माहौल बनाना चाहती हैं जिसमें कर्मचारी ये महसूस करें कि उन्हें उनकी काबिलियत के हिसाब से पैसे मिल रहे हैं। वो खुश रहेंगे तो और भी बेहतर काम करेंगे।
फायदा आखिर किससे
पिछले दशक की आर्थिक मंदी से दुनिया कमोबेश उबर चुकी है। कई देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इसका फायदा सिर्फ कंपनियों के बड़े अफसरों को ही मिल रहा है। आज रहन-सहन ऐसा हो गया है कि उसका खर्च बहुत बढ़ गया है, लेकिन दुनिया भर के कर्मचारियों की सैलरी उस हिसाब से नहीं बढ़ी है। कई कर्मचारी तो आज पहले के मुकाबले बुरी आर्थिक स्थिति में हैं।
ब्रिटेन के रोजगार एक्सपर्ट डंकन ब्राउन कहते हैं कि, 'आर्थिक तरक्की और तनख्वाह बढ़ने के बीच जो परंपरागत रिश्ता रहा था, वो टूट गया है। आज इस बात के तमाम सबूत मिलते हैं कि भले ही अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई हो, मगर लोगों की सैलरी में बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी ही है। ये बात हमने 1860-1870 के दशक के बाद नहीं देखी थी।'
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
असल में दुनिया के तमाम देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया है। ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, चीन और भारत जैसे देशों ने पिछले 30-40 सालों में रोजगार के नियम काफी ढीले किए हैं। मजदूर संगठनों को कमजोर कर दिया गया है। नतीजा ये हुआ है कि आज रोजगार के बाजार में मजदूरों की नहीं, कंपनियों की चलती है। इसके अलावा आज ज्यादा लोग कम वक्त के कॉन्ट्रैक्ट पर काम करते हैं या फ्रीलांस करते हैं। ऐसे में बेहतर तनख्वाह के लिए लड़ने की आम कर्मचारी की हैसियत कम हो गई है।
कई कंपनियां सैलरी बढ़ाने के बजाय दूसरी तरह के झुनझुने थमाती हैं। अमरीका के लेबर ब्यूरो के ताजा आंकड़े बताते हैं कि आज कंपनी से कर्मचारी को सैलरी के तौर पर मिलने वाली रकम कुल देनदारी का महज 68.2 प्रतिशत रह गई है, जबकि 18 साल पहले इसमें तनख्वाह का हिस्सा 72.5 प्रतिशत हुआ करता था।
सुविधाओं का सैलरी से वास्ता
जी-20 देशों, जिनमें भारत भी है, के आंकड़े बताते हैं कि आज मुनाफे में कर्मचारी का हिस्सा घट रहा है। साफ है कि कंपनियां अपना मुनाफा मुलाजिमों के साथ साझा नहीं कर रही हैं। सिडनी स्थित ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी के जॉन बुकानन कहते हैं कि, 'खुली अर्थव्यवस्था का नियम है कि कारोबारी हर हाल में अपना मुनाफा अपने पास रखने की कोशिश करते हैं। एक दौर था जब न्यूनतम मजदूरी से लेकर दूसरी बुनियादी सुविधाएं किसी भी रोजगार में अनिवार्य कर दी गई थीं। आज लेबर मार्केट के नियमों में बहुत रियायत दे दी गई है। नतीजा सामने है।'
वैसे, कुछ लोगों को इसमें कर्मचारियों का फायदा भी दिखता है, जैसे कि आज उनके काम के घंटों में लचीलापन आ गया है। यानी बहुत से कर्मचारियों को मन-मुताबिक समय पर काम करने की छूट मिलती है। आज कर्मचारियों को वर्क-लाइफ बैलेंस बनाने के लिए कंपनियां काफी रियायतें देती हैं। इसके अलावा पेंशन, स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएं कर्मचारियों को भविष्य की आर्थिक प्लानिंग करने में मदद करती हैं।
वैसे कुछ दिखावटी सुविधाएं भी हैं, जिनका कर्मचारी की बेहतरी से कोई वास्ता नहीं। जैसे कि कुछ कंपनियां मुफ्त शराब, कंपनी की कैंटीन में डिस्काउंट और कुछ दुकानों से खरीदारी में डिस्काउंट जैसी सुविधाएं भी देती हैं। पर इन सुविधाओं का कोई खास फायदा नहीं। आज घर खरीदना या किराए पर लेना इतना महंगा हो गया है। ऐसे में सैलरी बढ़ाने के बजाय मुफ्त शराब देकर कंपनियां कोई भला तो कर नहीं रही हैं। इससे किसी के सिर पर छत तो आएगी नहीं।
इंग्लैंड के मजदूर नेता फ्रांसेस ओ ग्रैडी कहते हैं कि कर्मचारी की जिंदगी में मौज-मस्ती का इंतजाम तो ठीक है, क्योंकि इससे उनका काम बेहतर होता है, लेकिन ये सुविधाएं, सैलरी बढ़ाने का विकल्प तो नहीं हो सकतीं। कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाह और तरक्की चाहिए होती है। उनके लिए अच्छी पेंशन योजनाएं होनी चाहिए।
कुछ कंपनियां इस दिशा में कदम बढ़ा रही हैं। जैसे कि अमरीका की सिएटल स्थित कंपनी ग्रैविटी पेमेंट्स ने 2015 में तय किया कि वो अपने कर्मचारियों को सालाना न्यूनतम 70 हजार डॉलर सैलरी देगी। कंपनी ने कहा कि उसका मकसद ये है कि कर्मचारियो की जिंदगी बेहतर हो। वो अच्छी जिंदगी जिएं। वो आर्थिक चुनौतियों से परेशान न हों, बल्कि खुश होकर काम पर ध्यान लगाएं।
जब इस कंपनी की स्थापना हुई थी, तब तनख्वाह 48 हजार डॉलर हुआ करती थी। कंपनी के सीईओ डैन प्राइस ने इस दौरान अपनी तनख्वाह कम कर दी। प्राइस कहते हैं कि सैलरी बढ़ाने से आज उनके कर्मचारी शहर में अच्छी जगह पर रहते हैं। वो अब बच्चे पैदा करने में घबरा नहीं रहे। वो अब अपनी पेंशन में भी ज्यादा योगदान दे रहे हैं। सैलरी में धुआंधार इजाफा करने से ग्रैविटी पेमेंट्स छोड़कर कर्मचारियों के जाने की तादाद कम हो रही है। लोग ज्यादा अर्जियां दे रहे हैं। खुद कंपनी का कारोबार भी बढ़ गया है।
बोनस में शेयर
हांगकांग ब्रॉडबैंड के सी वाई चैन कहते हैं कि आज युवाओं को पैसे चाहिए, ताकि वो बेहतर जिंदगी जी सकें। उनकी जरूरतें बढ़ रही हैं। हांगकांग ब्रॉडबैंड कर्मचारियों को पढ़ने का मौका देती है। इसका खर्च उठाती है, लेकिन चैन कहते हैं कि ये सुविधाएं सैलरी बढ़ाने का विकल्प नहीं हो सकतीं।
इसलिए हांगकांग ब्रॉडबैंड ने 2012 में कंपनी के शेयर में हिस्सेदारी की स्कीम लॉन्च की। इसके तहत कर्मचारी अपने बोनस से इसका शेयर खरीद सकते हैं। आज वो खुद को कंपनी का मालिक समझ सकते हैं। जो कंपनियां ऐसा करती हैं, उनकी तरक्की का शानदार इतिहास रहा है।
जॉन ल्यूइस पार्टनरशिप जैसी सहकारी कंपनी में तो बॉस से लेकर निचले दर्जे के कर्मचारी तक, सब को एक बराबर बोनस मिलता था। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में कई कंपनियां अपनी कर्मचारियों की बेहतर जिंदगी की जिम्मेदारी लेती थीं। कैडबरी जैसी कंपनी ने तो अपनी फैक्ट्री के इर्द-गिर्द ही कर्मचारियों को बसाया था। इससे कंपनी छोड़कर जाने वालों की तादाद काफी घट गई थी। डैन ब्राउन कहते हैं कि अगर आप अपने कर्मचारियों को ठीक से सैलरी नहीं दे सकते, तो आपको कारोबार नहीं करना चाहिए।