हर अच्छा उस्ताद अपने से बेहतर शागिर्द जमाने को देकर जाता है। ये शागिर्द पर भी होता है कि वह अपने उस्ताद का कितना सम्मान करता है, किस नजरिए से उसकी सीखों को गांठ बांधता है और कैसे उसे अपने जीवन में उतारता है। निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी एक अच्छे शागिर्द और एक अच्छे उस्ताद दोनों साबित हुए। बिमल रॉय से उन्होंने सिनेमा की बारीकियां सीखीं थीं, ऐसी बारीकियां जो उन्होंने अपने सिनेमा में बार बार आजमाई। गीतकार योगेश को फिल्म ‘आनंद’ में बड़ा मौका मिला था। मौका अमिताभ बच्चन को भी इस फिल्म में बहुत बड़ा मिला। तब हास्य कलाकार महमूद ने अमिताभ बच्चन को सिर्फ एक ही गुरुमंत्र दिया था, और वह ये कि राजेश ख्नन्ना के स्टारडम को बढ़ाने के लिए फिल्म में जो भी जरूरी है, वह करते रहो। अमिताभ ने वही किया और ‘बाबू मोशाय’ बनकर मशहूर हो गए। तब तक हालांकि अमिताभ और जया भादुड़ी की शादी नहीं हुई थी लेकिन ‘गुड्डी’ के लिए पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट से जया को खोजकर लाने वाले भी ऋषिकेश मुखर्जी ही थे। फिल्म ‘आनंद’ की शुरूआत ही उस दृश्य से होती है जिसमें डॉ. भास्कर बनर्जी अपने दिवंगत दोस्त आनंद सहगल की यादें लोगों से साझा करता है। ऋषिकेश मुखर्जी दरअसल पहले ही सीन में बता देना चाहते थे कि आनंद मर चुका है और ये इसलिए कि दर्शकों के मन में ये भ्रम नहीं रहना चाहिए कि कैंसर से जूझ रहा आनंद मरेगा या बचेगा। वह दर्शकों को एक कैंसर मरीज की मरने से पहले की जिंदादिली दिखाना चाहते थे और यही फिल्म की कामयाबी का राज भी रहा।

फिल्म ‘आनंद’ शुरू होती है तो ऋषिकेश मुखर्जी इसे बंबई शहर और राज कपूर को समर्पित करते हैं। सबसे पहले परदे पर लिखा यही आता है, ‘डेडिकेटेड टू सिटी ऑफ बॉम्बे एंड राजकपूर’। ऋषिकेष मुखर्जी अपने उस्ताद बिमल रॉय के कहने पर बंबई आए थे। कामयाब फिल्म एडीटर वह पहले से थे और बिमल रॉय के साथ रहकर ही उन्होंने फिल्म निर्देशन की बारीकियां सीखीं। राज कपूर को निर्देशित करने का मौका उन्हें फिल्म ‘अनाड़ी’ में मिला और यहीं से दोनों के बीच जो रिश्ता बना, वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दोस्ती की एक मिसाल माना जाता है। राज कपूर ही ऋषिकेश मुखर्जी को ‘बाबू मोशाय’ कहकर बुलाया करते थे। अमिताभ बच्चन के किरदार को ये नाम ऋषिकेश मुखर्जी ने वहीं से दिया। राजेश खन्ना का जो किरदार है वह राज कपूर को ध्यान में रखकर लिखा गया था। फिल्म की पूरी आत्मा राज कपूर और ऋषिकेश मुखर्जी की दोस्ती पर आधारित थी। एक बार ऋषि दा ने बताया भी था, ‘मैंने अपने और राज साब के बीच के तमाम अंतरंग लम्हे इस कहानी में पिरोए हैं। ये ऐसे क्षण हैं जो सिर्फ मैं और वह ही जानते हैं। ये फिल्म बनाना भी मैं उन्हीं के साथ चाहता था। लेकिन पहली बार कुछ संयोग नहीं बना और दूसरी बार संयोग बना भी तो वह एकदम से बीमार पड़ गए। उनकी ये दशा देखकर मैं इतना हिल गया था कि परदे पर भी अपने दोस्त को मरते हुए नहीं देखना चाहता था।’

ऋषिकेश मुखर्जी ने फिल्म ‘आनंद’ दरअसल बांग्ला में बनाने के लिए लिखी थी। इसे वह पहली बार राज कपूर और उत्तम कुमार के साथ बनाना चाहते थे। ये बात ऋषिकेश मुखर्जी की पहली फिल्म ‘मुसाफिर’ के रिलीज होने के भी तीन साल पहले यानी 1954 की है। लेकिन फिल्म बनी 1970 में और रिलीज हुई साल 1971 में। इस बीच आनंद के किरदार के लिए एक बार शशि कपूर का नाम भी आगे चला। ये उन दिनों की बात है जब राज कपूर गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। शशि कपूर के अलावा ऋषिकेश मुखर्जी ने इस रोल के बारे में अपनी फिल्म ‘सत्यकाम’ के दौरान धर्मेंद्र से भी बात की थी। धर्मेंद्र तैयार भी थे, लेकिन इसी बीच राजेश खन्ना से ऋषिकेश मुखर्जी की बात हुई और उन्होंने अपनी बाजार दर से कहीं कम पर ये फिल्म करने की बात मान ली। फिल्म शुरू हो गई तो धर्मेंद्र को इसका पता चला। इसके बाद तो एक दिन रात में पूरी तरंग में आने के बाद धर्मेंद्र ने फोन मिलाकर ऋषिकेश मुखर्जी का जो लेफ्ट, राइट, सेंटर किया, उसे वह अरसे तक मजे लेकर लोगों को सुनाते रहे। ऋषिकेश मुखर्जी दिलदार इंसान थे। बंबई की जीवंतता उन्हें भा गई थी। उनका आनंद इसी शहर जैसा था। अंदर से बीमार। बाहर से हंसमुख और दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार।

फिल्म की मेकिंग के दौरान एक वक्त ये फिल्म किशोर कुमार और महमूद के साथ बनाने का विचार भी ऋषिकेश मुखर्जी के मन में आया था, लेकिन फिर बात आगे बढ़ी नहीं। हालांकि, राजेश खन्ना के फिल्म में आने के बाद किशोर कुमार से गाने गवाने के लिए ऋषि दा उनके बंगले पर गए थे, पर तब उनके चौकीदार ने भीतर नहीं घुसने दिया। दरअसल, किशोर कुमार का कोलकाता के किसी शो आयोजक से पंगा हो गया था और वह घर आने वाला था तो किशोर कुमार ने अपने चौकीदार को किसी बंगाली के गेट पर आने पर उसे टरका देने को कहा था। और, पहुंच गए उसी समय ऋषिकेश मुखर्जी। फिल्म ‘आनंद’ के गाने राजेश खन्ना के लिए मुकेश ने उस दौर में गाए हैं, जब किशोर कुमार उनकी आवाज बन चुके थे। लेकिन, सच ये भी है कि जब राजेश खन्ना से एक बार इंटरव्यू में उनसे उनका सबसे पसंदीदा गाना पूछा गया था तो उन्होंने कहा था, ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए...।’

गीतकार योगेश के गाने ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए...’ से ऋषिकेश मुखर्जी इतना खुश हुए कि उन्होंने योगेश को एक और गाना लिखने को कहा और वह लिखकर लाए, ‘जिंदगी कैसी है पहेली हाय..।’ इस गाने के भी अजब किस्से हैं। पहले तो राजेश खन्ना के पास शूटिंग के लिए तारीख नहीं। तो तय हुआ कि इसे फिल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक में इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन, ऐसे गाने रेडियो पर बजते नहीं थे तो राजेश खन्ना एक दिन कुछ घंटे निकालने को राजी हो गए। ऋषिकेश मुखर्जी अपने कैमरामैन और राजेश खन्ना को लेकर जुहू बीच पहुंचे। वहीं से 10 पैसे का एक गुब्बारा खरीदा। इसे राजेश खन्ना के हाथ में थमाया और बोले कि बस सीधे निकल जाओ। कैमरामैन ने कैमरा रोल कर दिया और बस गाना शूट हो गया। संगीतकार सलिल चौधरी को हिंदी सिनेमा में इस फिल्म ने पुनर्स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई।