कलाकार: जमील खान, गीतांजलि कुलकर्णी, वैभव राज गुप्ता, हर्ष मायर और सुनीता राजवर।
सृजनकर्ता: श्रेयांस पांडे
निर्देशक: पलाश वासवानी
रेटिंग: **
ओटीटी पर इन दिनों साफ सुथरी सामग्री बनाने का काम कोई कर रहा है तो उसमें द वायरल फीवर का नाम शुरू की प्रोडक्शन कंपनियों में सबसे आगे गिना जा सकता है। इन लोगों की बनाई सीरीज ‘पंचायत’ मेरी पिछले साल की फेवरिट सीरीज रही। जीतेंद्र कुमार, रघुवीर यादव और नीना गुप्ता ने इसके लिए इनाम भी जीत लिए। अब देखना होगा कि इसका दूसरा सीजन कैसा बनता है। टीवीएफ की बारात निकल चुकी है। तमाम गुणी लोग कंपनी छोड़कर जा चुके हैं। नजर इसी बात को लेकर ‘गुल्लक’ पर अटकी थी कि देखें, इसका दूसरा सीजन कितना टिंच बनकर आता है। अगर आपने सीरीज का पहला सीजन देख रखा है तो उसकी कसौटी पर ‘गुल्लक’ का दूसरा सीजन कमजोर है। हां, जो लोग पहली बार देख रहे हैं तो उनके लिए मामला पैंतीस है।
कहानी वही मिश्रा परिवार की है। यूपी 16 वाला स्कूटर और बोली कानपूर की। कानपुर वाले सब अपने शहर को अइसे ही बुलाते हैं, कानपूर। अन्नू मिश्रा टिपिकल नौघड़ा या मूलगंज के वासी लगते हैं। और छोटे मिश्रा जो हर किसी से लात घूंसा पाते रहते हैं, वो लगता है अभी अभी बजरिया थाने वाली ढलान से लुढ़के हैं। बिजली विभाग में काम करने वाले मिश्रा जी अब तक सुविधा शुल्क से दूरी बनाए हुए हैं और मिसराइन को देखके लगता है कि पूरा देश चलाने का टेंशन इन्हीं के माथे की सलवटों में बसा है। पड़ोस वाली आंटी भी हैं। यानी सब मिलाके ‘जगराना बुआ लौटीं’ टाइप बारह मसाले छप्पन जायके वाला सेटअप है। ओटीटी के गाली कंपटीशन में हुई काजोल की लेटेस्ट एंट्री वाले माहौल में बिल्कुल उलट फैमिली टाइप सीरीज।
लेकिन, मामला अबकी पिछले बार से थोड़ा गड़बड़ाया है। ऐसे लगता है कि दूध गैया ने कम दिया लेकिन ग्राहक को पूरा पांच लीटर देना ही था तो बनाने वालों ने बिसलेरी का पानी मिला दिया। संवाद लिखने की असली कला यही है कि उसका बहाव बिल्कुल चक्क होना चाहिए, लगना नहीं चाहिए कि कोई पढ़ के बोल रहा है। सीरियल और पिक्चर वाली भाषा में जिसे ‘बुकिश डॉयलॉग’ बोलते हैं, ऐसा इस बार ‘गुल्लक’ के दूसरे सीजन में हो गया है। दर्शक को ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ वाले स्टाइल में बने औसतन 25 मिनट के पांच एपीसोड में इस बार वो करंट गायब है जो ऐसे मोहल्लों में बने पुराने घरों के जीनों में पुरानी वायरिंग से लोगों को अक्सर लगता रहता है।
सीरीज की पूरी चढ़ैया हर एपीसोड में चूंकि मिश्रा फैमिली को ही चढ़नी होती है तो ध्यान पूरा उन्हीं पर रहना लाजिमी है। लेकिन, यहां तो वेटिंग पर आजमी भी नहीं है तो फिर काहे की हबड़तबड़। यूं लगा कि निर्देशक फटाफट सब कुछ बना बनू के फारिग हो जाना चाहता है। ठहराव नाम की चीज इस बार सीरीज में नहीं है। कुछ भी ठीक से स्टैबलिश न होने देने की इसके स्क्रिप्ट राइटर और डायरेक्टर शुरू से ठाने हैं। संवाद में आपदा, विपदा और बापदा जैसे प्रयोग है जिन्हें सुनकर लगता है इन्हें रिवर्स प्लानिंग में लिखा गया है, माने कि पे बैक पहले सोचा गया, सेटअप बाद में किया गया। सीरीज में यूपी के टिपिकल म्यूजिक का इस्तेमाल इसे और बढ़िया बना सकता था, लेकिन ओटीटी सीरीज में इतनी रिसर्च कम ही लोग करते हैं। दूसरे, कम रोशनी वाला सेटअप ब्लैक कॉमेडी में तो काम करता है लेकिन सिचुएशनल कॉमेडी को इतना गरीब भी नहीं होना चाहिए। 999 रुपये साल का देकर कौन गरीब सोनी लिव देखता है भला?
वेब सीरीज ‘गुल्लक’ उन लोगों के लिए ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ है जिन्होंने कानपुर की गंदगी देखी नहीं है। जियो का डाटा पाकर चीनी मोबाइल पर ऐसी सीरीज देखने वालों के लिए ये रोज का टंटा है, इसमें कॉमेडी कहां है। हर बात में चिड़चिड़ाना, हर बात में भन्नाना, गरीब परिवार का अपनी मुसीबतों से ध्यान बंटाने का क्लासिक किस्सा ऐसी कॉमेडी में रहता है लेकिन इसमें जबतक समाज ढंग से न जुड़े, कहानी का संहार हर बार उपसंहार तक पहुंचने से पहली ही हो जाता है। जमील खान, गीतांजलि कुलकर्णी एक मिडिल क्लास हसबैंड वाइफ लगते तो हैं लेकिन उनकी परेशानियां एक दो एपीसोड बाद चुभने लगती हैं। हर्ष मायर को ऐसा क्यों बनाया गया, राइटर ही जानें लेकिन इतने मंदबुद्धि बालक मिश्राओं के परिवार में होते नहीं हैं। हां, अन्नू मिश्रा जैसे भौकाली बहुत हैं, लेकिन वो इतनी ओवरएक्टिंग नहीं करते।