पोलियो आज दुनियाभर से खत्म होने की कगार पर पहुंच चुका है। 1988 की तुलना में इस बीमारी से प्रभावित बच्चों के मामलों में 99 फीसदी तक कमी आई है। इसके बावजूद कई बार ये खतरनाक बीमारी मासूमों को अपनी चपेट में लेने मे कामयाब हो रही है। इस बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए दुनियाभर में लोग दिन रात कड़ी मेहनत करने में जुटे हुए हैं। 24 अक्तूबर को विश्व पोलियो दिवस मनाया गया। इस मौके पर यूनिसेफ के वॉलिंटयर्स और स्वास्थकर्मियों ने 95 देशों में बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई। इस दौरान कई मुश्किलें आईं, लेकिन कोशिश करने वाले आखिर कब हारे हैं। 'जिंदगी की दो बूंद' पिलाने के लिए इन स्वयंसेवकों ने कहीं पहाड़ लांघा तो कहीं रस्सी के सहारे जान जोखिम में डालकर नदी पार की। आइए विभिन्न देशों में मुश्किलों को पीछे छोड़कर अपना फर्ज निभाने वालों के जज्बे को सलाम करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र एजेंसी हर साल एक अरब खुराकों का वितरण कर रही है लेकिन अब भी हजारों की संख्या इसे नहीं ले पा रहे हैं। 1988 में पोलियो के साढ़े तीन लाख से ज़्यादा मामले सामने आए थे लेकिन अब इनकी संख्या घटकर महज 40 रह गई है। पोलियो से प्रभावित देशों की संख्या में भी कमी आई है।
बीमारी पर काबू पाने के प्रयासों के तहत कई पहलों को शुरू किया गया। इनमें ‘ग्लोबल पोलियो इरेडीकेशन इनिशिएटिव’ भी शामिल है। संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य एजेंसी, यूनीसेफ और अन्य साझेदार संगठनों के प्रयासों के फलस्वरूप 1.8 करोड़ लोग आज चल पा रहे हैं, नहीं तो वे इस अपंग बनाने वाले वायरस का शिकार हो जाते।
पोलियो वैक्सीन से अछूते बच्चे आमतौर पर हिंसक संघर्ष से प्रभावित या फिर दूर-दराज़ के क्षेत्रों में रहते हैं, जहां पहुंचना एक बड़ी चुनौती है। वंचित समुदाय पहले से बुनियादी सुविधाओं जैसे जल, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता जैसी मुश्किलों को झेल रहे हैं। ऐसे में पोलियो वैक्सीन मुहिमों का लक्षित ढंग से संचालित किए जाने की आवश्यकता है।
पोलियो उन्मूलन की दिशा में हुए प्रयासों से पिछले 30 सालों में स्वास्थ्य देखरेख में 27 अरब डॉलर की बचत करने में मदद मिली है।